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तृष्णा थी कि पूरे शहर की हर जमीन को वे अपनी ही सम्पत्ति मानते थे। जमीनों को पाने के लिए वे खोटे-खरे हर तरह के काम कर देते थे। धन आए मुट्ठी में, धर्म जाए भट्ठी में' वाली सोच के व्यक्ति थे। साम, दाम, दण्ड, भेद हर तरह की नीति-अनीति वे कर दिया करते थे। अरबों रुपये की जमीनें उन्होंने बटोर ली लेकिन खुद अकाल मौत मारे गए। उनके दो लड़के हैं, दोनों के दोदो लड़कियाँ हैं । बड़े लड़के की दोनों लड़कियाँ मानसिक रूप से विक्षिप्त हैं
और छोटे लड़के की दोनों लड़कियाँ किसी दुर्घटना में अपंग हो चुकी हैं। वे दोनों लड़के काफी सुरक्षा में जीते हैं और शायद सोचा करते हैं कि अगर उनके पास धन नहीं होता तो आज वे अपनी लड़कियों का इलाज कैसे करवाते? मैं सोचा करता हूँ, काश! दूसरों की जमीने हड़प कर उनकी बदुआएँ न ली होतीं तो बच्चियों के इलाज की आवश्यकता ही न पड़ती। है दुखों की खाई, व्यर्थ की सिरखपाई
चिंता के कारणों में एक और कारण है- 'छोटी-छोटी बातों में सिर खपाई।' इससे परिवार का माहौल कलुषित होता है । सब लोग आपस में टूटते हैं और हर व्यक्ति तनाव और चिंता से ग्रस्त रहता है। कोई बड़ी बात हो और हम सिरखपाई करें तो बात जमती भी है लेकिन छोटी-छोटी बातों को सहजतापूर्वक न लेना और उन पर विपरीत टिप्पणियाँ करना परिवार में सिर फुटव्वल की नौबत लाना है। मुझे याद है, एक महिला अपनी बच्ची को छोटी-छोटी बातों में टोका करती थी और उसकी टोकने की आदत इतनी बढ़ गई कि दिन में पच्चीस-पच्चास बार तो वह उसे टोक ही देती। धीरे-धीरे बच्ची पर टोका-टोकी का प्रभाव कम होने लगा। वह न केवल चिड़चिड़ी हो गयी अपितु माँ की बातों पर ध्यान देना भी उसने बंद कर दिया। परिणामत: माँ इस बात को लेकर चिंताग्रस्त हो गयी कि आखिर मेरी बेटी मेरा कहना क्यों नहीं मानती?
अभी कुछ दिन पूर्व एक महानुभाव मेरे पास चैन्नई से आए। अपनी व्यथा सुनाते हुए वे कहने लगे, 'शादी के साल-छ: महीने तक तो मेरी और मेरी पत्नी में काफी प्रेम बना रहा लेकिन उसके बाद पता नहीं क्या हुआ कि
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