Book Title: Kaise Sulzaye Man ki Ulzan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 56
________________ के समाज का अध्यक्ष था, उसका पता ही नहीं लगता कि बात-बात में उसे कब क्रोध आ जाता है? इतना ही नहीं, वह गुस्से में आकर माइक पर, मंच पर कुछ भी बोल देता था। पर वह था इतना निश्च्छल दिल का आदमी कि या तो दो मिनट बाद ही सामने वाले से माफी मांग लेता अथवा यह कहते हुए मधुर मुस्कान से बात खत्म कर देता कि मैंने कब गुस्सा किया। ___अल्पकालीन क्रोध करने वाले लोग किसी बात को ज्यादा लंबी नहीं खींचते। बस दो मिनट के लिए जैसे हवा में गुबार आया हो या पानी में बुलबुला उठा हो। ऐसा होता है उसका गुस्सा। ऐसे लोग कभी भावुक हो जाते हैं और कभी कठोर। जिसे मैं अस्थायी क्रोध कहना चाहता हूँ उन लोगों की प्रकृति ऐसी होती है कि वे किसी भी बात को दो दिन तक ढोते रहते हैं। बात छोटी-सी होगी पर उसे खुद ही बढ़ाएँगे और दो दिन तक रूठे रहेंगे। फिर यह प्रतीक्षा करेंगे कि कोई उन्हें मनाएं या 'सॉरी' कहे तो वे वापस पहले जैसे हो जाएँ। ऐसे लोग पाँच-सात दिन तक तो औरों से 'सॉरी' कहलवाने का इंतजार करते हैं, पर उसके बाद खुद ही सीधे और शांत हो जाते हैं। तीसरी प्रकृति होती है स्थायी क्रोध की। ऐसे लोग मरते दम तक किसी भी बात को ढोते रहते हैं। जैसे किसी ने चार लोगों के बीच अपमानजनक कोई बात कह दी अथवा किसी की शादी में जाने पर सामने वाला व्यक्ति सबसे तो घुलमिल कर बात करे पर उनसे बात करना भूल जाए, यदि परिवार के किसी सदस्य द्वारा सहजता में ही कोई व्यंग्यात्मक बात कह दी जाए तो उस श्रेणी के क्रोध में जीने वाले लोग उनकी गांठ बाँध लेते हैं और धीरे-धीरे अपने व्यवहार के द्वारा उस गांठ को और भी अधिक मजबूत करते रहते हैं। धीरे-धीरे यह गांठ जो पहले तो एक तरफी होती है पर फिर दो तरफी हो कर कई परिवार और समाज में विभाजन करा देती है। जैसे गन्ने की गांठ में एक बूंद भी रस नहीं होता वैसे ही जो लोग मन में गाँठे बांध कर रखते हैं, उनका भी जीवन नीरस हो जाता है। न बांधे वैर की गांठ हम एक शहर में थे। किसी महानुभाव ने तपाराधना के उपलक्ष्य में 47 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146