Book Title: Kailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 2
Author(s): Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
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हस्तलिखित जैन साहित्य १.१.२
४११
कर्मस्तव नव्य कर्मग्रन्थ-अवचूरि, सं., गद्य, आदि:-; अंतिः-.पे.वि. मूल-गा.३४. प्रारंभ के पत्र नहीं हैं व प्रतिलेखक
द्वारा अपूर्ण. पे.२. पे. नाम. बन्धस्वामित्व नव्य कर्मग्रन्थ सह अवचूरि, पृ. ८अ-१०अ, संपूर्ण
बन्धस्वामित्व नव्य कर्मग्रन्थ, आ. देवेन्द्रसूरि, प्रा., पद्य, आदिः बन्धविहाणविमुक्कं; अंतिः नेयं कम्मत्थयं सोउं.
बन्धस्वामित्व नव्य कर्मग्रन्थ-अवचूरि*, सं., गद्य, आदि:#; अंति:#., पे.वि. मूल-गा.२५. पे..३. पे. नाम. षडशीति नव्य कर्मग्रन्थ सह अवचूरि, पृ. १०-१५अ, अपूर्ण
षडशीति नव्य कर्मग्रन्थ, आ. देवेन्द्रसूरि, प्रा., पद्य, आदिः नमिय जिणं जिय; अंतिः
षडशीति नव्य कर्मग्रन्थ-अवचूरि*, सं., गद्य, आदि:-; अंति:-, पे.वि. प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण. ९१८७. कल्याणमन्दिर स्तोत्र टीका, अपूर्ण, वि. १७वी, मध्यम, पृ. १०, जैदेना., पू.वि. प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण., (२६४११, १३
१५४४५-४६).
कल्याणमन्दिर स्तोत्र-टीका, मु. कनककुशल, सं., गद्य, वि. १६५२, आदिः प्रणम्य पार्श्वमिष्ट; अंति:९१८८. सङ्ग्रहणीसूत्र सह बालावबोध, संपूर्ण, वि. १६वी, श्रेष्ठ, पृ. ४२, जैदेना., प्र.वि. मूल-गा.२७६; बालावबोध-ग्रं. १७५७;
प्र.पु.-बालावबोध-ग्रं. १४००., (२६४११, १३४५२-५३). बृहत्सङ्ग्रहणी, आ. चन्द्रसूरि, प्रा., पद्य, वि. १२वी, आदिः नमिउं अरिहन्ताइं; अंतिः सन्नि गईरागई वेए.
बृहत्सङ्ग्रहणी-बालावबोध, गणि दयासिंह, मागु., गद्य, वि. १४९७, आदिः नत्वा श्रीवीरजिनं; अंतिः लवलेश जाणिवानइ. ९१८९. प्रतिक्रमणसूत्रसङ्ग्रह सह बालावबोध, अपूर्ण, वि. २०वी, श्रेष्ठ, पृ. ८४-२९(३ से ३१)+१(६९)=५६, जैदेना., पू.वि. बीच
के पत्र नहीं हैं व प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण., (२४.५४११, ३-१६४३१-४१). श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र-तपागच्छीय, संबद्ध, प्रा., प+ग, आदिः नमो अरिहन्ताणं; अंतिःश्रावकप्रतिक्रमणसूत्र-तपागच्छीय-बालावबोध, मु. जिनविजय, मागु., गद्य, वि. १७५१, आदि: बार गुणे करि सहित;
___अंति:९१९०." क्षेत्रसमास सह बालावबोध, संपूर्ण, वि. १८वी, मध्यम, पृ. २४, जैदेना., प्र.वि. मूल-६ अधिकार., गा.२६३., संशोधित,
त्रिपाठ, पदच्छेद सूचक लकीरें-प्रारंभिक पत्र, (२६४११, ४-६x४४-४७). लघुक्षेत्रसमास प्रकरण, आ. रत्नशेखरसूरि , प्रा., पद्य, वि. १५वी, आदिः वीरं जयसेहरपय; अंतिः कुसलरङ्गमयं
पसिद्धं.
लघुक्षेत्रसमास प्रकरण-बालावबोध, सं.,मागु., गद्य, आदिः वीरं० श्रीवीर; अंतिः कादि तुल्यमपि. ९१९१. प्रतिक्रमणसूत्रसङ्ग्रह, संपूर्ण, वि. १८वी, श्रेष्ठ, पृ. ५, जैदेना., (२६४११, ११-१३४३५-४०).
प्रतिक्रमणसूत्र सङ्ग्रह-श्वे.मू.पू.*, संबद्ध, प्रा.,सं.,मागु., प+ग, आदिः नमो अरिहन्ताणं; अंतिः कार्येषु सिद्धिम्. ९१९२.” भरहेसर सज्झाय सह टीका, अपूर्ण, वि. १७वी, मध्यम, पृ. ८५-१९(१ से २,२३ से ३९)=६६, जैदेना., प्र.वि. पदच्छेद
सूचक लकीरें, पू.वि. बीच-बीच के पत्र हैं., दशा वि. अक्षर फीके पड गये हैं, (२४.५४११, १५४४२-४४).
भरहेसर सज्झाय-वृत्ति, गणि शुभशील, सं., गद्य, वि. १५०९, आदि:-; अंति:९१९३.” सत्तरिसयठाणा व श्लोकसङ्ग्रह, संपूर्ण, वि. १६५२, श्रेष्ठ, पृ. १६, पे. २, जैदेना., प्र.वि. अन्वय दर्शक अंक युक्त
पाठ, (२६४११, १३४४५-५२). पे..१. सप्ततिशतस्थान प्रकरण, आ. सोमतिलकसूरि , प्रा., पद्य, वि. १३८७, (पृ. १अ-१६आ), आदिः सिरिरिसहाइ
जिणिन्दे; अंति: जाइ सो सिद्धिठाणे., पे.वि. गा.३५९.
पे.२. श्लोक सङ्ग्रह', सं.,प्रा.,मागु.,हिन्दी, पद्य, (पृ. १६आ-१६आ), आदि:#; अंति:#. ९१९४. ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रवृत्ति, संपूर्ण, वि. १५वी, श्रेष्ठ, पृ. ८४, जैदेना., प्र.वि. प्र.पु.-ग्रं. ४५००., (२६.५४११, १५-१७४४४
५५).
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