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फलती । इसीलिए दुर्विनीत को विद्या प्रदान करने का यहां निषेध किया गया है।
पूज्य हरिभद्रसूरिजी ने योग-ग्रन्थों में लिखा है कि अयोग्य शिष्यों को सूत्र आदि प्रदान न करें। योगी कुल में उत्पन्न व्यक्ति ही इसके अधिकारी हैं। अतिसार के रोगी को दूधपाक नहीं खिलाया जाता ।
* विद्या कौनसी प्राप्त करनी चाहिये ? जो अविद्या को नष्ट करती हो वह ।
अनित्य, अपवित्र, जड़ देह को नित्य, पवित्र और चेतन रूप मानना अविद्या है।
* आत्म-गुणों का नाश अर्थात् आत्मा का नाश ।
देह में प्रगाढ़ अभेद बुद्धि के कारण हमें आत्मा या आत्मा के गुण कदापि याद आते ही नहीं ।
* अपना नाम आगे करने वाला, गुरु को पीछे रखने वाला अविनीत ऋषि-घातक के लोक में (दुर्गति में) जाता है, वैसा यहां बताया गया है ।
गुरु अर्थात् आचार्य ही नहीं, दीक्षा-शिक्षा वगैरह प्रदान करने वाले भी गुरु ही हैं । _ 'गुरु के बिना मुझे कौन दीक्षित करता ? उनके विरुद्ध मैं कैसे बोल सकता हूं?' यदि ऐसे विचार सतत समक्ष रहें तो योग्य शिष्य गुरु के विरुद्ध खड़ा हो ही नहीं सकेगा ।
__यदि आत्मा का उद्धार करना चाहते हो तो (सचमुच तो इसके लिए ही संयम जीवन अपनाया है) गुरु की अवहेलना कदापि मत करना ।
गोशाला ने भगवान महावीर पर तेजोलेश्या छोडी, जिसके कारण अनेक भवों तक वह तेजोलेश्या आदि से मरेगा ।
कितनेक शिष्य कहते हैं - मेरा मन अध्ययन में लगता नहीं है, परन्तु लगे कहां से ? गुरु के आशीर्वाद के बिना चित्त संक्लिष्ट ही रहेगा ।
कितनेक शिष्य तो ऐसे अविनीत एवं उद्धत होते हैं कि वे अपने गुरु के दोष मेरे समक्ष भी प्रकट करते हैं । ऐसे शिष्य
(३६ 6mmmmmmmomooooooooms कहे कलापूर्णसूरि - २)