Book Title: Jjagad Guru Aacharya Vijay Hirsuriji Maharaj
Author(s): Rushabhratnavijay
Publisher: Jagadguru Hirsurishwarji Ahimsa Sangathan

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Page 18
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org NGOKOONG हीरजीने गृह पर आकर बडी बहिन को विनम्र होकर अपनी संसार त्याग की भीष्म प्रतिज्ञा जाहिर की । वह इलेक्ट्रीक करण्ट जैसे वचन को सुनकर बहिन मोहवश चैतन्यशून्य हो गई । मगर आकंठ वीर वाणी का अमीपान किया था । इसलिये हीरजी को महाभिनिष्क्रमण की न अनुमति दी, एवं संसार में ठहरनेका भी न कहाँ । अपितु तीसरा राह मौनका आलम्बन लिया । हीरजी बडे चतुर थे । वे समज गये । 'न निषिद्धं अनुमतं' इस न्याय से उसने आचार्यश्री के पास आकर प्रव्रज्याका मुहूर्त निकाला । और वि.सं. १५९६ का. सु. र सोमवार के शुभ दिन तेरह सालकी उम्र में हीरजी बडी धूमधामसे पुनित प्रव्रज्या के पथिक बने । तब से कुमार हीरजी मुनि हीरहर्ष बने । स्वार्थी संसार का अंचला त्यागकर मुक्तिपथके विहारी - सच्चे साधु बने । पू. आचार्य देवने नूतन मुनि पर अनुग्रह करके ग्रहण और आसेवन रूप शिक्षा का अनुदान किया । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नूतन मुनिश्री नित नूतन अभ्यास और गुरू विनय-सेवा दोनों को अपना जीवन मुद्रालेख बनाकर संयमपर्याय में दिन व दिन प्रगति करनें लगे । गुरू महाराजने हीरहर्षकी विनम्रता सह शास्त्राध्ययन में भारी प्रज्ञा देखकर उनको न्याय - तर्क आदि गहन शास्त्रो को पढने के लिये दक्षिण देश के विद्याधाम देवगिरि में मुनि धर्मसागर और मुनि राजविमल को साथ भेजे । वहाँ से तनिक समय में शास्त्रावगाहन करके त्रिपुटी मुनि गुरूवरके पास नाडलाई गांव में आये । तब हीरहर्षको पूज्यश्रीने वि. सं. १६०७ में गणि-पंडित पद से विभूषित किया इतना ही नहीं बल्कि वि.सं. १६०८ में माध सुद ५ को नाडलाई में ही मुनि धर्मसागर और मुनि राजविमल के साथ मुनि हीर हर्ष गणि को भी उपाध्याय - पद का दान दिया । उपाध्यायजी हीरहर्ष की चारों ओर से चरित्र प्रभा की कीर्ति, ज्ञानका प्रकृष्ट वैभव विद्वान शिष्य सम्पत्ति और शासन की रक्षा एवं प्रभावना की बडी तमन्ना इत्यादि गुण - मौक्तिकों से प्रसन्न होकर पू. आचार्य भगवंतनें सिरोही नगर में वि. सं. १६१० पोष सुद पंचमी के ENGOKOO LOOKO 3 For Private and Personal Use Only

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