Book Title: Jjagad Guru Aacharya Vijay Hirsuriji Maharaj
Author(s): Rushabhratnavijay
Publisher: Jagadguru Hirsurishwarji Ahimsa Sangathan

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Page 46
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Mas cenas, cemas,celashekarelas, parekas, गच्छकी चिंता और शासनके हितके कारण आपने विजय सेनसूरिको बुलानेकी तीव्र उत्कंठा हुई । साधुओंने मुनि धनविजयजी को उग्र विहार कराकर लाहोर भेजा । बादशाहकी आज्ञा लेकर विजयसेनसूरिने उनाकी और विहार कर लिया । जैसी आपको शिष्यको मिलनेकी तमन्ना थी वैसी शिष्यकों भी शीघ्र आपकी सेवामें पहुंचने की उम्मीद थी । पा विजयसेनसूरि जैसे उग्र विहार कर रहे थे, ऐसे इधर भी सूरिजीके देहमें रोग तीव्र रूप पकड रहे थे । चातुर्मास आया, पर्युषणापर्व आया । अभी विजयसेनसूरिजी नहीं आये । चिंता से आप अत्यंत व्यथित हो रहे थे । वाचक कल्याणविजयजी, वाचक विमल हर्ष और सोमविजय ने कहा, गुरूवर ! आप निश्चिंत रहे विजयसेनसूरिजी शीघ्र आ रहे है। पर्युषणमें कल्पसुत्र का व्याख्यान आपनें ही दिया । इससे परिश्रम बहुत पडा और स्वास्थ्य ज्यादा शिथिल बना । वि.सं. १६५२ के भा. सु. १० की मध्यरात्रिको आपने वाचक विमल हर्ष आदिको बुलाया । और कहने लगे, विजय सेनसूरिजी नहीं आये । इसलिये जैसी आप सबनें मेरी आज्ञा और सेवा उठाई है, ऐसी विजयसेनसूरिकी सेवा और आज्ञा का पालन करना । समुदायमें सदा संघठन रखना और शासन प्रभावना जैसे हो ऐसी रीतिसे वर्तना । ऐसा मेरा अनुरोध हैआज्ञा है । ___और मैंने अभी तक सबको सारणा-वारणा आदि प्रकारसे सब कुछ कहा होगा । इसलिये सबको खमाता हुं-मिच्छामिदुक्कडं देता हुं । मानो कोई हृदयमें वज्र न डालता हो ऐसी हृदय-द्रावक सूरिजीकी वाणी सुनकर शिष्यों के हृदय फुटने लगे और नेत्र में से अविरत अश्रुधारा बहने लगी । SABSHSSCRIBSHSSCRIBSABSRIBSITSSRDSMISSICDSHPSSCBSESSORISSIS 31 For Private and Personal Use Only

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