Book Title: Jjagad Guru Aacharya Vijay Hirsuriji Maharaj
Author(s): Rushabhratnavijay
Publisher: Jagadguru Hirsurishwarji Ahimsa Sangathan
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सोमविजयजीने कहा, आपनें तो हमारा पुत्र जैसे पालन किया है । अंधेरेमें गिरे हुये हम को प्रकाशमें लाये हो । आपका हमनें बहुत अपराध-गुन्हा किया है । आप तो गुणके सागर है । अतः त्रिविध-त्रिविध हम सब आपको खमाते है । आप, क्षमा दान करें ।
आपने सकल जीवराशिको क्षमापना करते हुवे चारशरणां, सुकृतका अनुमोदन और दुष्कृतकी गर्हा की । सुबह हुई । भा. सु. ११ का दिन सुबहसे सारा उपाश्रय श्रावक-श्राविकासें ठसों ठस भर गया । आप तो ध्यानमें लीन हो गये थे । शाम हुई, प्रतिक्रमण किया । बादमें आप, पध्मासनमें बैठकर हाथमें माला लेकर अरिहंतध्यानमें मस्त बन गये । चार माला पूर्ण हुइ । पाँचवीं माला गीनते-गीनते सहसा गिर पडे, और आत्म-हंसलो देह-पिंजरको छोडकर स्वर्ग प्रति मुक्त बन कर चला गया । वहाँ जय जय नंदा के जयनाद हुए । इधर गुरू विरह का आर्तनाद गुंज उठा । आप, ५६ साल का सुविशुद्ध संयम पालन करके ६९ साल की आयुः पूर्ण कर स्वर्धाम पधारें ।
___गाँव गाँव में कासीद द्वारा कालधर्मका समाचार भेजा गया । इधर संपूर्ण जैन-जैनेतर वर्ग एकत्र हुआ | आपकी अंत्येष्ठी क्रिया कराई । तेरह खंडकी भव्य विमान जैसी पालखी बनाके इसमें आपके विभूषित देहको पधराया । हजारों लोगोंने विविध प्रकारकी दानकी निधि उछाली । घंटानाद बजाया । श्मशानयात्रा गाँव बाहर आंबावाडी में आई । इधर देहको चितामें पधराया, तो संधर्के हृदयमें से नेत्रो द्वारा अश्रु बाहिर आये । चिता प्रगटकी गई
और इसमें १५ मण चंदन ५ मण अगर-३ रोर कपुर-२ शेर कस्तुरी-३ शेर केसर और ५ शेर चुआ डाला गया । पार्थिव देह नष्ट हो गया मगर यशोदेह स्थिर रह गया । सब साधुओंने आपके विरह-वेदना से अठ्ठम किया था।
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