Book Title: Jjagad Guru Aacharya Vijay Hirsuriji Maharaj
Author(s): Rushabhratnavijay
Publisher: Jagadguru Hirsurishwarji Ahimsa Sangathan
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पदवी दी थी । सिद्धिचंद्रने, बुरहानपुरमें बत्तीस चोर मारे जाते थे उनको बादशाहकी आज्ञा लेकर छुडाये थे और एक बनिया हाथी के पाँव नीचे मारा जाता था उसको भी छुडाया था । उनका फारसी भाषापर अच्छा प्रभुत्व था ।
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बादशाहने सिद्धिचन्द्रजी के साधु धर्मकी परीक्षा करने के लिये पहले बहुत धनवैभव का लोभ दिखाया। मगर जब वे चलित न हुवे तो उन्होंने मारने की भी धमकी दी, उससे भी वो डरे नहीं बल्कि उन्होंने बादशाह को ऐसे रेसे खुल्ले शब्दोमें सुना दिया कि बादशाह सुनकर उनके चरणकमलमें अपना शिर डालकर भावपूर्ण वंदना करने लगा ।
एक बार बादशाह लाहोरमें थे । अकस्मात् उनकी सूरिजी को बुलाने की मनोकामना हुई । अबुलफजल को बुलाया, और सुरिजीको आमंत्रण देने को कहा, तभी अबुल फजलनें कहाँ, नामवर ! वो तो बडे वृद्ध हो गये है, मगर विजनसेनसूरिको आमंत्रण दो, सूरिजीने भी उनको भेजने का वचन दिया है।
तब बादशाहनें सूरिवर पर श्रद्धा पूर्ण ऐसा भाव -सभर पत्र लिखा कि पढकर सूरिजी गहन विचार-धारामें लीन हो गये। एक तरफ अपनी वृद्धावस्था और दूसरी तरफ शासन - उद्योत के कारण बादशाहकी विज्ञप्ति, 'इतो व्याघ्रः इतो दुस्तटी' ऐसा सूरिजी को हो गया। मगर सूरिजीने निजी स्वार्थको गौण करके विजयसेन सूरिजीको दिल्ली जाने की अनुज्ञा दी। उन्होंने भी गुरूआज्ञा शिरोधार्य करके वि.सं. १६४९ मा. सु. ३ को प्रयाण किया ।
विजयसेन सूरिजी विचरते - विचरते ज्येष्ठ सुद १२ के मंगल दिन लाहोर पधारे । तब भानुचंद्रजीने संघ के साथ भव्य स्वागत यात्रा निकाली थी । उनमें बादशाहनें हाथी-घोडा - शाही बेन्डपार्टी आदि भेजकर स्वागत की शोभा द्विगुण बढ़ा दी थी ।
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