Book Title: Jjagad Guru Aacharya Vijay Hirsuriji Maharaj
Author(s): Rushabhratnavijay
Publisher: Jagadguru Hirsurishwarji Ahimsa Sangathan

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Page 38
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Mas,cakaochelas,cenas,menascens,cuelas,pekas, बादशाहके पास विजयसेनसूरि बहुत दिन रहे थे । एक दिन उनके शिष्य नंदिविजयजीनें विधविध देशोंके राजवींओंसे युक्त राजसभामें अष्टावधान किया । तब आपके कौशल्य से चमत्कृत होकर बादशाहनें 'खुशफहम्' पदसे आपको विभूषित किया । विजयसेनसूरिने बादशाहके हृदय-पट पर ऐसा प्रभाव डाला था कि उन्होंका आप के उपर बहुत पूज्यभाव हो गया था । इस कारण आपका ज्यादा ज्यादा सन्मान करते थे, और बडे बडे उत्सवोंमें सहायता भी देते थे । आपका भारी सम्मान देखकर कई ब्राह्मण आदिने अकबर के दिलमें यह बात ठोंस दी, कि जैन लोग इश्वरको नहीं मानते है, गंगाको पवित्र नहीं मानते है, सूर्यदेव को नहीं मानते है । उक्त कथनसे भोले बादशाह को चोट लग गई । उसने विजयसेनसूरि को बुलाया, और उक्त विषय के प्रश्न पूछे, सूरिजीने कहा, आपकी अध्यक्षतामें एक सभा बुलाकर उसका निर्णय करेंगे । बादशाहनें एक दिन मुकरर किया । एक तरफ विद्वान ब्राह्मण पंडित आये दूसरी तरफ विजयसेनसूरि-नंदिविजय आदि पधारे । दोनों पक्षोनें अपने -अपने मतका प्रतिपादन किया । इसमें विजयसेनसूरिने तर्क और प्रभावोत्पादक युक्तियोंसे ऐसा निरसन किया कि सारी सभा स्तब्ध हो गई और पंडितजी निरूत्तर बन गये । वहां बादशाहने प्रसन्न होकर सूरिसवाइ' की पदवी देकर आपका बहुमान किया । विजयसेनसूरिने अपने उपदेशके प्रभावसे गाय-मेंस-बेल आदि का हिंसा का निषेध और मृत मनुष्यका कर बंद कराया था । और चार महिने तक सिंधु नदी और कच्छ के जलाशयोमें से मछलीर्यां नहीं मारने का फर्मान भी निकलवाया था । Maecenas/melas,ceaselas,cevas,cevaselas, 231 For Private and Personal Use Only

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