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कहा-आचरण चलता रहता है, पर हकीकत तो यह है कि जब जीवन में धर्म का जन्म ही नहीं हुआ, तो उसका आचरण कैसे हो पाएगा। पाप-भीरु लोग धार्मिक किताबों को सुन-पढ़कर उनमें लिखी बातों को अपने जीवन में उतारने की कोशिश करते रहते हैं, लेकिन एक छोटा-सा प्रलोभन अथवा एक छोटी-सी विपदा भी, उन्हें उनके द्वारा स्वीकार किए गए मार्ग से विचलित कर देती है। वे अपने समझे गए धर्म पर नहीं रहते। वे फिसल जाया करते हैं। ऐसे लोगों को फिर-फिर थामने की ज़रूरत पड़ती है, पर अपनी आंतरिक मूर्छा से मुक्त न हो पाने के कारण वे थामे भी नहीं थमते। धर्म उनके लिए नहीं है, जो उसकी मुंडेर पर आ खड़े होते हैं। भला हर राह चलता आदमी हर किसी कुएं का मालिक थोड़े ही हो जाएगा। कुआं उनका नहीं है, जो उसकी मुंडेर पर बैठे हैं, वरन उनका है, जिनमें कुएं का पानी पीने की प्यास है। प्रश्न है आखिर यह प्यास मिलती कहां से है? प्यास भला कोई बाजार में बिकती है! प्यास तो अपने आप उठती है और यह प्यास जगती है तब, जब व्यक्ति की अंतर्दृष्टि जीवन और जगत को पढ़ने की कोशिश करती है। जीवन और जगत् को पढ़ना धरती की सर्वश्रेष्ठ कृति को पढ़ना है। धरती पर ऐसा कोई भी पहलू नहीं है, जिसका कोई सारतत्त्व न हो। ऐसा भी कोई पहलू नहीं है, जिसमें निःसारता न छिपी हो। हर वस्तु में सार तत्त्व छिपा है और हर वस्तु में निःसार तत्त्व। सार को सार रूप जानना और असार को असार रूप, यही व्यक्ति की सत्य और सम्यक् दृष्टि है।
जागे अंतर्दृष्टि
हमें इस बात से कोई प्रयोजन नहीं होना चाहिए कि जगत् को किसने बनाया या जिसने जगत् को बनाया, उसको बनाने वाला कौन रहा। हमारी अंतर्दृष्टि तो केवल इतना ही देखे कि यह जगत् आखिर क्या है? यह जीवन और इसका रहस्य क्या है? धरती पर इतना दुःख क्यों है? मैं स्वयं दुःखों का अनुभव क्यों करता हूं? मैं अपने आपको दुःखी देखना चाहता हूं या सुखी?
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