Book Title: Jiye to Aise Jiye
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 82
________________ जीवन का होश आ जाए, तो पाप की धारा बदल जाती है । कल तक जो कदम गलत रास्तों पर चलते थे, वे उनसे विमुख हो जाते हैं । तब उनके जो कदम होते हैं, वे ही पुण्य कहलाते हैं । निश्चय ही आज जो पापी हैं, हमारे पुण्य की संगत पाकर बहुत कुछ मुमकिन है कि वे पापमुक्त हो जाएं । सहानुभूति स्वयं में पुण्य है और ग़ैरों के प्रति सहानुभूति रखना पुण्यात्माओं काही कार्य है । सच्चा पुण्यात्मा सबसे सहानुभूति रखता है । वह औरों से सहानुभूति प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं रखता । वह यह भली-भांति जानता है कि जो आज दुःखी है, मुझे उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। मैं भी कभी दुःखी था, पर जैसे मैं अपने दुःखों से मुक्त हो गया, वैसे ही यह भी हो जाएगा; मैं भी कभी बुरा था, पर जैसे मैं अपनी बुराइयों से छूट गया, वैसे ही कभी यह भी छूट जाएगा । आखिर यही अकेला कष्ट नहीं भोग रहा है, मैंने भी कष्टों के कांटों को सहन किया है, पर जैसे आज मेरे जीवन में सुख-शांति और आनंद के फूल खिल आए हैं, ऐसे ही कभी इसके जीवन में भी खिल आएंगे। फिर दुनिया में कौन भला, कौन बुरा ! सब नियति का खेल है । कम-से-कम मैं ऐसा दुष्पात्र न बनूं कि कोई और मेरी कोमल सहानुभूति से वंचित रहे । अगर ऐसा हुआ, तो किसी एक पात्र के सामने मेरी अपात्रता सिद्ध हो जाएगी। महावीर का यह वचन हमें सदा इस हेतु प्रेरित और प्रोत्साहित करता रहेगा कि गृहस्थ तो देने मात्र से ही धन्य हो जाता है, उसमें पात्र-अपात्र का विचार क्या ! ईश्वर करे कि हम स्वयं सुख से जीएं और औरों के सुख से जीने के अधिकार की रक्षा करें। प्रेम, सेवा और सहानुभूति को हम अपना धर्म मानें। प्रेम से बढ़कर कोई धर्म नहीं, प्रेम से बढ़कर कोई प्रसाद नहीं । हम स्वार्थ के गलियारे से बाहर आएं। औरों के द्वारा किए जाने वाले क्षुद्र व्यवहार के प्रति भी करुणा रखें। मेरे द्वारा औरों का भला हो, यह सजगता बरकरार रहे। Jain Education International 81 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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