Book Title: Jiye to Aise Jiye
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 120
________________ परिस्थितियां हैं। ये सदा ही बुरे हैं। बुराई से उपरत होना मनुष्य के लिए आत्मविजय है। मनोविकारों का हमें अनुभव है। इनके अमंगलकारी दुष्परिणामों से भी हम परिचित हैं। व्यक्ति इन्हें छोड़ना भी चाहता है; ज्ञानीजन इनको छोड़ने का उपदेश भी देते हैं, पर क्या व्यक्ति इनसे छूट पाया है? वह न चाहते हुए भी, छोटे-से निमित्त को पाकर पुनः-पुनः अपने मनोविकारों की आगोश में चला जाता है। उसे कई दफा आत्मग्लानि भी होती है और प्रायश्चित्त भी, पर जैसे खुजली का रोगी खुजलाहट उठने पर खुजलाने के लिए फिर-फिर प्रेरित और विवश हो जाता है, ऐसी ही स्थिति मनुष्य की है, प्राणिमात्र की है। मनुष्य पशु नहीं है। पशुता उस पर हावी अवश्य हो जाती है। उसके पास बुद्धि है, हृदय है, चेतना की उच्च पराशक्ति है। मनुष्य अपने लिए कुछ कर सकता है। जीवन की व्यवस्थाओं को जुटाने के लिए तो वह कुछ-न-कुछ करता ही रहता है, जीवन के रूपांतरण और चिर-स्वस्थ सौंदर्य के लिए भी वह काफी कुछ करने में समर्थ है। उसके पास जीवन है, जीवन का विज्ञान है, जीवन-विज्ञान के प्रयोग हैं। वह जीवन के साथ कुछ प्रयोग करके कल्याणकारी अमृतधर्मा स्वरूप को उपलब्ध कर सकता है। वर्तमान युग की यह सबसे बड़ी खोज है कि मनुष्य अपनी दृष्टि और मानसिकता में बदलाव ला सकता है। वह न केवल अपने मानसिक तनावों, विकारों और कषायों से उपरत होने में सफल हो सकता है, अपितु स्वयं की उच्च मानसिक क्षमता, प्रज्ञाशीलता और चेतना की अतिरिक्त विशेषताओं से भी मुखातिब हो सकता है। मनुष्य के समग्र समवेत कल्याण के लिए ही धरती पर धर्म और अध्यात्म का जन्म हुआ है। ये दोनों ही बड़े पवित्र शब्द हैं। दोनों का ही धरती पर उपकार रहा है। ये दोनों जब अपने शुद्ध स्वरूप में होते हैं, तो निश्चय ही जन-जन का हित साधते हैं, लोकचक्र में धर्मचक्र के आलोक का प्रवर्तन करते हैं। 119 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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