Book Title: Jiye to Aise Jiye
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 121
________________ मानवीय स्वार्थों के चलते जब धर्म और अध्यात्म का स्वरूप अशुद्ध और संकीर्ण बन गया, तो प्रबुद्ध पीढ़ी ने इनसे दूर रहना शुरू कर दिया। जितना अशुभ धर्म का अशुद्ध और संकीण होना हुआ, उतना ही प्रबुद्ध का इनसे दूर होना। धर्म : जीवन का विज्ञान धर्म वास्तव में जीवन पर आरोपित किया गया कोई कानून या विधान नहीं है। धर्म जीवन का सहचर है, जीवन के लिए सदा सुखावह है। धर्म हमें हमारे मानसिक विकारों और दुःखों से मुक्त करते हुए जीवन का चिर मंगलकारी सत्य-शिव और सुंदर स्वरूप प्रदान करता है। धर्म पंथ नहीं, जीवन का विज्ञान है; यह उपदेश नहीं, जीवन का आचरण है। प्रेम और पवित्रता, सत्य और शांति यही धर्म का सार रूप है। प्रबुद्ध मानव-जाति अंधविश्वासों पर अमल नहीं कर सकती। वह जीवन का वास्तविक स्वरूप जीना चाहती है। उसके लिए सच्चा संन्यास गृह-त्याग नहीं, जीवन के विकारों, अंधविश्वासों और बुराइयों से छूटना संन्यास का सही अर्थ है। तुम विकार-विजय और स्वभाव-परिवर्तन को ही धर्म का मर्म मानो। विकार-विजय ही धर्म का मर्म है और स्वयं का स्वभाव-परिवर्तन ही धर्म की दीक्षा। प्रश्न है : आदमी अपने विकारों से कैसे छूटे? काम-क्रोध, वैर-विरोध, द्वेष-दौर्मनस्य से कैसे मुक्त हो? क्या इसके लिए किन्हीं धार्मिक किताबों को पढ़ने और संतों के प्रवचनों को सुनने से बात बन जाएगी? विकारों की जड़ों तक उतरे बिना विकार भला कैसे कटेंगे। व्रत-नियम केवल औपचारिकता है, आध्यात्मिक उन्नति के सहायक पहलू हैं, पर भीतर उतरे बिना बात नहीं बनेगी, अंतर्-पहचान और अंतर्-शुद्धि नहीं हो पाएगी। इसके लिए व्यक्ति को अपने स्वयं के साथ कुछ निर्मल प्रयोग करने होंगे; उसे अपने भीतर वहां तक जाना होगा, जहां तनाव-विकार-अज्ञान और कषाय की जड़ें पांव फैलाए बैठी हैं। 120 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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