Book Title: Jiye to Aise Jiye Author(s): Chandraprabhsagar Publisher: Pustak MahalPage 96
________________ काम-ये भी चित्त के ही पर्याय हैं, वहीं प्रेम और शांति भी चित्त के ही धर्म। बड़ा बहुरूपिया है यह। चित्त के इतने-इतने रूप कि इसके आगे शिव शंकर भी ठग जाएं। चित्त का स्वरूप जलाशय जैसा व्यक्ति का चित्त जैसे ही प्रभावित या आंदोलित होता है, तो उसका व्यक्तित्व और आचार-व्यवहार सभी कुछ उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। यदि मनुष्य का चित्त भयग्रस्त हो जाए, तो न केवल इस स्थिति में उसका शरीर सुस्त हो जाएगा, वरन् उसे दस्तें भी लग सकती हैं, जी मचला सकता है। इतना ही नहीं, वह अपने मित्रों और परिजनों के प्रति भी सशंकित हो उठेगा। उसे हवा का एक झोंका दस तरह के बहमों से भर देगा। यह हम भली-भांति जानते हैं कि व्यक्ति का चित्त जब क्रोधित हो जाता है, तो हमारे रक्त की गति, आंखें और वाणी-व्यवहार कितना असंतुलित-असंयमित हो जाता है। इसी तरह चित्त में जब वासना की तरंग उठती है, तो मन की स्थिति, बुद्धि का विवेक, शरीर का स्वास्थ्य, व्यवहार की पवित्रता सभी कुछ तो बाधित हो जाते हैं। तब मानो आंखों को कुछ सूझता ही नहीं। बुद्धि की आंखों में एक अलग ही तरह का अंधत्व उतर आता है। यह अंधत्व आखिर चित्त की ही परिणति है, यानी चित्त का आंदोलित होना व्यक्ति के संपूर्ण जीवन-चरित्र को आंदोलित करने के समान होता है। जैसे जलाशय में फेंका गया पत्थर का एक छोटा टुकड़ा उसकी संपूर्ण सहजता को अस्थिर और तरंगित कर देता है, चित्त का स्वरूप भी उस जलाशय जैसा ही है। जीवन के केंद्र में चित्त की भूमिका प्रमुख रहने के कारण व्यक्ति का कब-क्या रूप होता है, इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। चूंकि मनुष्य बहुचित्तवान है, इसलिए उसके रूप भी बहुतेरे हैं। चित्त एक होकर भी अनगिनत रूपों को अपने में धारे है। अब भला यह बात कोई तय थोड़े ही है कि व्यक्ति का कब-क्या रूप होगा। चेहरा तो वही होता है, लेकिन सुबह 95 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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