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मैंने देवों को भी देखा है। कभी-कभी ऐसे संत और सज्जन पुरुषों से मिलना होता है कि हृदय स्वतः ही उनकी नेकनीयती, उनकी सादगी और उनके दिव्य भावनात्मक तथा व्यावहारिक स्वरूप पर समर्पित हो जाता है। दुनिया में अगर बुरे लोग हैं, तो भले लोगों की भी कमी नहीं है। अच्छाई से बढ़कर कोई ऊंचाई नहीं होती। ऊंचा उठने के लिए अच्छा होना ज़रूरी है। हम स्वयं अपने जीवन को निहारें, तो स्वतः ही यह आत्म-पहचान हो जाएगी कि मैं कैसा हूं, मेरा स्वरूप क्या है; मेरे चित्त में प्रेत और पशुता के अंधड़ छिपे हैं या भलाई और देवत्व के फूल खिले हैं। हंसना-रोना जीवन में ऐसे ही चलता रहेगा, पर हम दुनिया में ऐसे जीएं कि हम हंसें और हमारे लिए जग रोए। क्या हम इस बात को तवज्जो देंगे कि हम स्वयं अपने अंतर्मन का आत्म-निरीक्षण कर सकें। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम स्वयं ही सुबह शांत और शालीन थे, वहीं अभी निराश और उदास हो चुके हों। कभी हंसने और कभी रोने का खेल, क्या हमारे साथ भी चल रहा है? कहीं हम मनुष्य के नाम पर ऐसे समुद्र तो नहीं हैं, जिसमें शांति-अशांति के क्लेश-संक्लेश के ज्वार-भाटे उठते रहते हों? अगर ऐसा है, तो हमें अपने चित्त और उसके स्वरूप पर ध्यान देना होगा; उसकी अंतर्-अवस्था को बदलने के लिए विचार करना होगा और विवेकपूर्वक मनन करके उन आयामों को खोजना होगा, जिनसे कि हम स्वस्थ, सौम्य और सुंदर चित्त के स्वामी बन सकें।
चित्त के विविध रूप क्यों?
प्रश्न है : आखिर चित्त के ये अच्छे-बुरे विविध रूप क्यों बन जाते हैं? क्या इस उठापटक से मुक्त होने का कोई रास्ता है? व्यक्ति का सही रास्ता तो उसके द्वारा विवेकपूर्वक आत्म-निरीक्षण करने से ही उपलब्ध होगा, लेकिन हम इतनी बात अवश्य जान लें कि हर व्यक्ति के चित्त में दो तरह के परमाणुओं का प्रवाह और प्रभाव परिलक्षित होता है और ये दोनों प्रवाह हमारे व्यक्तित्व की आंतरिक गहराई में प्रवाहमान हैं। ऐसा समझें कि हमारे
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