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के क्षणों में हमारी जो भी सोच और निर्णय होंगे, वे कभी विवेक और बुद्धिमत्तापूर्ण हो ही नहीं सकते। तुम कितने ही बुद्धिमान क्यों न हो, लेकिन व्यग्रता में लिए गए निर्णय में गुणात्मकता का अभाव ही होगा। मन में पलने वाली आशंका, आवेश और आग्रह व्यक्ति के मार्ग में पड़ने वाली वे चट्टानें हैं, जो आदमी को आगे बढ़ने से रोकती हैं। मन की शांति, औरों के प्रति विश्वास और कदाग्रहों से परहेज हमारी सोच के रास्ते को सदा प्रशस्त और निष्कंटक बनाए हुए रखते हैं। हमने कभी अपने आप पर ध्यान दिया कि हम छोटी-छोटी बातों पर क्रोधित और उत्तेजित हो जाते हैं? सोच पर अपना नियंत्रण न होने के कारण अथवा सोचने की क्षमता का पूरा उपयोग न करने की वजह से ही तो घर, परिवार और समाज के बिखेरे-बंटवारे होते हैं। तुम्हें यह पूरा हक है कि अपनी पत्नी के द्वारा कही गई बात पर ध्यान दो, पर इसका मतलब यह नहीं कि अपनी मां की बात को सुने बगैर सास-बहू के झगड़े में अपने को उलझाओ। किसी भी बिंदु पर अगर ठंडे मिजाज से निर्णय न लिया, तो तुम घाटा खा बैठोगे। अगर अपने मिजाज को शांत-सौम्य न बना सके, तो ध्यान रखो कि दो के झगड़े में तीसरे का घुसना सदा आत्मघातक होता है। चौराहे पर झगड़ रहे दो युवकों में से एक ने कहा, अगर अब कुछ बोला, तो मेरा एक बूंसा तेरी बत्तीसी तोड़ देगा। दूसरे ने कहा, जा-जा; अगर मेरा घूसा पड़ा, तो तेरे चौंसठ दांत तोड़ दूंगा। तभी पास खड़े राहगीर ने टोकते हुए पूछा कि बत्तीस दांत की बात तो समझ में आती है. पर तू चौंसठ कहां से तोड़ेगा। उसने कहा, मुझे पता था कि तू ज़रूर बीच में बोलेगा। इसलिए बत्तीस इसके और बत्तीस तेरे! बेहतर होगा-'तू तेरी सम्हाल, छोड़ शेष जंजाल ।' हम अपनी सम्हालें, अपने में मस्त रहें।
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