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दी। उन्होंने यह कहते हुए मार्कशीट अपने पास रख ली कि ज़रा रुको, मुझसे मिलकर जाना। जब सभी सहपाठी अपनी-अपनी मार्कशीट लेकर क्लास से चले गए, तो पीछे केवल हम दो ही बचे-एक मैं और दूसरे टीचर। उन्होंने मुझसे बमुश्किल दो-चार पंक्तियां कही होंगी, लेकिन उनकी पंक्तियों ने मेरा नज़रिया बदल दिया, मेरी दिशा बदल डाली। उन्होंने कहा-क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारी सप्लीमेंटरी आई है? चूंकि तुम्हारा बड़ा भाई मेरा अजीज मित्र है, इसलिए मैं तुम्हें कहना चाहता हूं कि तुम्हारा बड़ा भाई हमारे साथ इसलिए चाय-नाश्ता नहीं करता, क्योंकि वह अगर अपनी मौज-मस्ती में पैसा खर्च कर देगा, तो तुम शेष चार भाइयों के स्कूल की फीस कैसे जमा करवा पाएगा! तुम्हारा जो भाई अपना मन और पेट मसोसकर भी तुम्हारी फीस जमा करवाता है, क्या तुम उसे इसके बदले में यह परिणाम देते हो? उस क्लास-टीचर द्वारा कही गई ये पंक्तियां मेरे जीवन-परिवर्तन की प्रथम आधारशिला बनीं। शायद उस टीचर का नाम था-श्री हरिश्चंद्र पांडे। जिन्होंने न केवल मुझे अपने भाई के ऋण का अहसास करवाया, अपितु शिक्षा के प्रति मुझे बहुत गंभीर बना दिया और तब से प्रथम श्रेणी से कम अंकों से उत्तीर्ण होना मेरे लिए चुल्लू भर पानी में डूबने जैसा होता। मैं शिक्षा के प्रति सकारात्मक हुआ। मां सरस्वती ने मुझे अपनी शिक्षा का पात्र बनाया। व्यक्ति यदि अपने जीवन-जगत् में घटित होने वाली घटना से भी कुछ सीखना चाहे, तो सीखने को काफी-कुछ है। सिर के बाल उम्र से नहीं, अनुभव से पके होने चाहिए। मनुष्य आयु से वृद्ध नहीं होता, वह तब वृद्ध हो जाता है, जब उसके विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है। किसी वृद्ध जापानी को उसकी पचहत्तर वर्ष की आयु में चीनी भाषा सीखते हुए देखकर कहा-अरे, भलेमानुष, तुम इस बुढ़ापे में चीनी भाषा सीखकर उसका क्या उपयोग करोगे? तुम तो मृत्यु की डगर पर खड़े हो। पीला पड़ चुका पत्ता कब झड़ जाए, पता थोड़े ही है। उस वृद्ध ने प्रश्नकर्ता को घूरते हुए देखा और कहा-आर यू इंडियन? प्रश्नकर्ता चौंका। उसने कहा-निश्चय
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