Book Title: Jiye to Aise Jiye Author(s): Chandraprabhsagar Publisher: Pustak MahalPage 59
________________ धर्म अथवा सिक्ख कुल में पैदा न होने के बावजूद अपने आपको बड़े प्रेम से सिक्ख कहूंगा। सिक्ख शब्द शिष्य से ही बना है । तुम अपने आपको चाहे सिक्ख कहो या शिष्य, दोनों का अर्थ और भाव एक ही है । जो हर समय कुछ-न-कुछ सीखने को, नया जानने को, नया करने को उत्सुक और संप्रेरित रहता है, वही व्यक्ति शिष्य है और वही व्यक्ति सिक्ख । जिज्ञासा-भाव न छूटे कुछ-न-कुछ नया सीखने और जानने की ललक तो व्यक्ति में हर समय रहनी ही चाहिए। ऐसा नहीं कि बी. ए., एम.ए. कर लिया, कहीं नौकरी लग गई और हमने शिक्षा और ज्ञान की इतिश्री मान ली । हम विद्यालयोंमहाविद्यालयों में जो अध्ययन करते हैं, वह तो एक तयशुदा - आरोपित शिक्षा है, किंतु महाविद्यालयीय अध्ययन से मुक्त हो जाने के बाद विश्व का विराट क्षितिज 'खुला है। हम अपनी मौलिक दृष्टि और रुचि के अनुरूप ज्ञान-सामग्री की तलाश कर सकते हैं और किसी नई मंजिल की स्थापना के लिए नए-नए आयामों की तलाश कर सकते हैं । विद्याभ्यास का वह पहला चरण शिक्षा के तहत आ जाएगा, किंतु यह दूसरा चरण स्वाध्याय, चिंतन और अनुसंधान के अंतर्गत । मैं मानता हूं कि शिक्षा जीवन का अनिवार्य चरण है, किंतु शिक्षा और मनुष्य के संबंध पर जब विचार करते हैं, तो यह जाहिर होता है कि शिक्षा वह होनी चाहिए, जो व्यक्ति के मौलिक और सहज विकास में सहायक हो । इतिहास की पुरानी किताबों में शिक्षा की सार्थकता के जो स्वरूप देखने को मिलते हैं, वे यह साफ़ जाहिर करते हैं कि तब शिक्षा का उद्देश्य रोजी-रोटी नहीं था, वरन् जीवन के आंतरिक और व्यावहारिक स्वरूप को परिपक्व और संस्कारित बनाना था । तब लोगों के लिए शिक्षा जीने की कला थी । वे पढ़े हुए को जीवन में आचरित हुआ देखना पसंद करते थे । उनकी कथनी उनके ज्ञान से उद्भूत होती थी । कथनी की अभिव्यक्ति से पहले व्यक्ति इस बात के लिए सजग रहता था कि उसकी कथनी, उसकी करनी के विरुद्ध न हो । Jain Education International 58 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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