Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 297
________________ २४० जीवन्धरचम्पूकाव्य शोकसे आकुल हो बलके साथ द्वेप करनेवाले (पक्षमें वल नामक दैत्यको नष्ट करनेवाले) इन्द्रको स्वीकृत कर चुकी है ॥२०॥ जिसकी महिमा अति प्रशंसनीय थी, जिसकी प्रवृत्ति अत्यन्त आदरणीय थी, जिसके पैर रखनेका पीठ राजाओंके मुकुटोंमें लगे हुए मणियोंसे सदा अनुरञ्जित रहा करता था तथा जिसकी उज्ज्वल कीर्ति शत्रुओंके साथ-साथ दिशाओंके अन्त तक जा पहुंची थी ऐसा सत्यन्धर राजा उस राजपुरी नगरीका शासन करता था ॥२॥ वह राजा इन्द्रके समान था क्योंकि जिसप्रकार इन्द्र समस्त सुमनोगण अर्थात् देवोंके समूहको आनन्दित करता है उसीप्रकार वह राजा भी समस्त सुमनोगण अर्थात् विद्वानोंके समहको आनन्दित करता था । अथवा यमराजके समान था क्योंकि जिसप्रकार यमराज महिपी-समधिष्ठित अर्थात् भैससे सहित होता है उसीप्रकार वह राजा भी महिषी-समधिष्ठित अर्थात् पट्टरानीसे सहित था । अथवा वरुणके समान था, क्योंकि जिसप्रकार वरुण आशान्तरक्षण अर्थात् पश्चिम दिशाके अन्त तककी रक्षा करने वालाहै उसी प्रकार वह राजा भी आशान्तरक्षण अर्थात् दिशाओं के अन्ततक की रक्षा करने वाला था। अथवा पवनके समान था, क्योंकि जिसप्रकार पवन पद्मामोदरुचिर अर्थात् कमलोंकी सुगन्धिसे मनोहर होता है उसीप्रकार वह राजा भी पद्मामोदरुचिर अर्थात् लक्ष्मीके हर्षसे मनोहर था । अथवा महादेवके समान था, क्योंकि जिसप्रकार महादेव महासेनानुयात अर्थात् कार्तिकेय नामक पुत्रसे अनुगत रहते हैं उसीप्रकार वह राजा भी महासेनानुयात अर्थात् बड़ी भारी सेनासे अनुगत था। अथवा नारायणके समान था क्योंकि जिसप्रकार नारायण वराहवपुष्कलोदयोद्धृतधरणीवलय अर्थात् सूकरके शरीरसे पृथिवी मण्डलका उद्धार करने वाले थे उसीप्रकार वह राजा भी वराहवपुष्कलोदयोद्धृतधरणीवलय अर्थात् उत्कृष्ट युद्धके पुष्कल-परिपर्ण अभ्युदयसे पृथिवी मण्डलका उद्धार करने वाला था। अथवा ब्रह्माके समान था, क्योंकि जिस प्रकार ब्रह्मा, सकलसारस्वतामरसभानुभूति अर्थात् समस्त सारस्वत देवोंकी सभाकी अनुभूतिसे सम्पन्न थे उसी प्रकार वह राजा भी समस्त श्रेष्ठ विद्वानोंकी सभाकी अनुभूतिसे सम्पन्न था। वह राजा भद्र गुण होकर भी अनाग था अर्थात् भद्र जातिका होकर भी हाथी नहीं था (परिहार पक्षमें कल्याणकारी गुणोंका धारक होकर भी अपराधोंसे रहित था) विबुधपति-देवोंका स्वामी-इन्द्र होकर भी कुलीन था-पृथिवीपर स्थित रहता था ( परिहार पक्ष में विद्वानोंका पति होकर भी श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न हुआ था)। सुवर्णधरसुमेरु होकर भी अनादित्याग था-सूर्यके आगमनसे रहित था ( परिहार पक्षमें--सुवर्ण अथवा सुयशका धारक होकर अनादि त्यागसे सहित था अथवा अनुपम त्यागसे सहित था। यद्यपि उसके वचन सरस अर्थके पोषक थे तथापि वह रसार्थ पोषक वचन नहीं था (परिहार-पक्षमें नर समूहको पुष्ट करनेवाले वचनोंसे सहित था आगमाल्याश्रित-अर्थात् आगमकी आली-समूहसे सहित होकर भी नागमाल्याश्रित था अर्थात् आगमकी आलीसे सहित नहीं था (परिहार पक्ष में हाथियोंकी मालाओं समूहोंके सहित था)। उस राजाकी कीर्ति दिशा रूपी अङ्गनाओंके स्तन-तटपर लगे हुए चन्दनके समान जान पड़ती थी जो उसकी लाल-लाल तेजोलक्ष्मी दिशारूपी अङ्गनाओंके स्तनतटपर केशरके द्वारा वनाये हुए अलङ्कारकी शङ्का करती थी । उस राजाकी कीर्ति बड़े-बड़े राजाओंके मुकुटों पर आभूषणस्वरूप मालाके समान सुशोभित होती थी और उसकी एकबारकी सेवा याचक-जनों के लिए कल्पवृक्षोंके समूहके समान आचरण करती थी अर्थात् कल्पवृक्षोंके समान उनके मनोरथ पूर्ण कर देती थी ॥ २२॥ जब राजा सत्यन्धर पृथिवीमण्डलका शासन करता था तब मदसे उत्पन्न मलिनता आदिका सम्बन्ध मदोन्मत्त हाथियोंमें ही था अर्थात् वे ही मदजलसे मलिन थे, अन्य मनुष्यों में मद अर्थात् अहंकारसे उत्पन्न होने वाली मलिनता नहीं थी । पराग अर्थात् रज फूलोंके

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