Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 377
________________ ३२० जीवन्धरचम्पूकाव्य श्रीदत्त भी विशाल नाइके द्वारा आकाशको भरता और सेनाको हर्षित करता हुआ कलिङ्ग नरेश के सामने गया || ७३ || उस समय जिनकी भुजाओं का प्रताप समस्त वीर जनोंके कानोंके लिए आभरणके समान था ऐसे श्रीदत्त और कलिङ्ग-नरेशका ऐसा युद्ध हुआ कि जिसमें परस्पर एक दूसरे के बाण काट दिये जाते थे । देवोंके द्वारा भी जिसमें बाण धारण करने तथा छोड़नेका पता नहीं चल सकता था, जिसमें जय-पराजयका भान नहीं होता था, जो पहले कभी देखनेमें नहीं आया था तथा देवोंके लिए भी जो अत्यन्त आश्चर्य में डालने वाला था । यह श्रीदत्त हाथमें नर्तित धनुषदण्डको खींचकर युद्ध में उस प्रकार बाण छोड़ता था कि उसका एक ही बाण शत्रुओं की सेनामें दशगुने वीरोंको वेगसे नष्ट कर देता था || ७४ ॥ छिद्र देख कर गर्जते हुए श्रीदत्तने शिरके साथ-साथ उस राजाका मुकुट पृथिवीपर गिरा दिया || ७५॥ जिसमें राजाका मस्तक पड़ा हुआ था ऐसा युद्धका अङ्गण उसके मुकुटसे निकलकर फैले हुए अपरिमित मोतियोंसे ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो कलिङ्ग नरेशकी राज्यलक्ष्मी के आँसुओं की बूँदों के समूह ही उसमें बिखर गये हों ।। ७६ ।। तदनन्तर सूर्य के पश्चिम समुद्र में निमग्न हो जानेपर जो शोक और हर्षके पारावार में निमग्न हुए थे, कमलोंके सङ्कुचित हो जानेपर जिन्होंने युद्ध के विलासको संकुचित कर दिया था और जगत् के अद्वितीय वीर कामदेवके धनुषकी डोरी चढ़ा लेनेपर जिन्होंने तत्काल ही अपने धनुषकी डोरी उतारकर रख दी थी ऐसे दोनों ओर के सैनिक अपने-अपने कटकमें गये । दूसरे दिन शत्रुरूपी वनको जलानेके लिए अङ्गारके समान काष्ठाङ्गारके द्वारा जिसकी विजयकी कथाको बार-बार प्रोत्साहन मिला था ऐसा मथन, प्रतिबिम्बित सूर्यकी प्रभासे दिशाओं के अवकाशको पीला करता तथा शत्रुरूपी सेनाके समुद्रको कवलित करता हुआ युद्ध के मैदान में आया । इधर भूमिगोचरी एवं विद्याधर - राजाओंसे सङ्गत पद्मास्य भी सेना आगेकर रणाङ्गणमें आ पहुँचा ॥७७॥ तदनन्तर जिनके अग्रभाग मथन और पद्मास्यसे सुशोभित थे, वादन दण्डसे ताड़ित निसा आदि अनेक प्रकारके बाजोंके शब्दोंसे बुलाये हुए देव लोगोंके द्वारा जिन्होंने आकाशके प्रदेशोंको व्याप्त कर दिया था, सिंहनाद में उत्पन्न हुई सिंहगर्जनाके भय से जिन्होंने दिग्गजोंको भयभीत कर दिया था और नवीन मसाणके द्वारा निर्मल की हुई हाथमें लपलपानेवाली तलवारों में सूर्यका बिम्ब प्रतिबिम्बित होनेसे जो मानो मूर्तिधारी अपने प्रतापको ही धारण कर रहे थे ऐसे दोनों ओर के सैनिक प्रशंसा के योग्य युद्ध करने लगे । जो युद्धरूपी दुर्दिन के समय मत्तं मयूरके समान था अथवा युद्धरूपी दुर्दिनके द्वारा जिसने यूरोको मत्त कर दिया था और हस्ततलमें उठाये हुए धनुषसे जो अत्यन्त भयंकर था ऐसा मथन रणाङ्गणमें इस प्रकार घूम रहा था जिस प्रकार कि जङ्गलमें उद्दण्ड सिंह घूमता है ॥ ७८ ॥ जिस प्रकार मन्दर गिरिने समुद्रको क्षोभित किया था उसी प्रकार मथनने राजाओंके साथ, घोड़ोंको विदारकर, हाथियोंको गिराकर और योद्धाओंको चीरकर जीवन्धर कुमारकी सेनारूपी समुद्रको क्षोभित कर दिया था ॥ ७६ ॥ पद्मास्य वेगसे रणाङ्गणमें रथ दौड़ाकर उसके सामने पहुँचा, पल्लवनरेशने काम्पिल्य- नरेशका सामना किया और बुद्धिषेणने लाट- नरेशका मुकाबला किया ॥ ८० ॥ महाराष्ट्र के सामने गोविन्द राजा पहुँचे तथा अन्य राजाओं के सामने नन्दाढ्य और विपुल आदि जाकर खड़ े हुए ॥ ८१ ॥ जिस प्रकार एक ही समुद्र चारों ओर से आनेवाली नदियोंको स्वीकृत करता जाता है, उसी प्रकार एक पद्मास्यनामका वीर सब ओरसे आनेवाली सेनाओंको बाणोंके द्वारा स्वीकृत करता जाता था उनके साथ सामना करता जाता

Loading...

Page Navigation
1 ... 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406