Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 391
________________ जीवन्धरचम्पूकाव्य होता था और न चक्रवाक पक्षियोंका युगल ही कभी बिछुड़ता था। साथ ही इन्हीं आभूषणों की प्रभासे वहाँ दीपक भी व्यर्थ रहते थे। उस भूमितिलक नगरमें पवनवेग नामसे प्रसिद्ध गुणवान् और प्रतापी राजा रहता था। उस राजाने क्षीरसमुद्रके फेनके समान कान्तिवाली अपनी कीर्तिसे समस्त दिशाओंके विस्तृत अन्तरालको लिप्त कर रखा था ॥३३॥ उस राजाकी जयवती नामकी रानी थी। वह रानी अपनी सुन्दरतासे रतिका गर्व छुड़ाने वाली थी और कानोंके अन्त तक उसके लम्बे नेत्र थे ॥३४॥ आप उस राजाके यशोधर नामक पुत्र थे। उस समय आप इतने अधिक सुन्दर थे कि अपने शोभासम्पन्न शरीरके द्वारा कामदेवको भी पराजित करते थे। आपकी आठ स्त्रियाँ थीं जो कि स्तनरूपी दो पर्वतोंके भारसे स्थिरताको प्राप्त हुई, ब्रह्मा द्वारा निर्मित मनोहर बिजलियोंके समान सुशोभित थीं ॥३५॥ जिस प्रकार हाथी हथिनियोंके साथ विहार करनेके लिए किसी उपवनमें जाता है उसी प्रकार आप भी किसी समय अपनी यौवनवती स्त्रियोंके साथ हर्षपूर्वक उपवनमें गये । वहाँ जाकर आप सामने ही सुशोभित तालाब पर पहुँचे । आपके पहुँचते ही वहाँ जो राजहंस पक्षी थे वे आपकी स्त्रियोंकी चाल देखनेसे लज्जित होकर ही मानो मनोहर नू पुरों की झनकारका अनुकरण करनेवाले अपने शब्दोंसे समस्त उपवनको शब्दायमान करते हुए क्षण भरमें उड़ गये। केवल एक अत्यन्त कोमल राजहंसका बालक शेष रह गया । पूर्ण पङ्ख उत्पन्न न होनेके कारण वह आकाशमें उड़नेमें असमर्थ था। वह एक खिले हुए कमल पर भय सहित लुढ़क रहा था, कमलिनीरूपी स्त्रीके मुखरूपी कमलकी नाकके चञ्चल मोतीके समान जान पड़ता था, कमल वन में रहनेवाली लक्ष्मीके मुखकमलसे निकलते हुए हास्यके खण्डके समान जान पड़ता था और वन-देवताके विकसित फूलोंसे निर्मित गेंदकी शंका कर रहा था। उस राजहंसके शिशुको आपने किसी सेवकसे पकड़कर अपने महलमें बुलवा लिया और सुवणशलाकाओंसे निर्मित पिंजड़ेमें रखकर मीठे दूध भात आदिके उपचारसे आप उसका अच्छी तरह पालन करने लगे। __ हे नरोत्तम ! किसी एक दिन अपनी स्त्रियोंके स्तनकलशोंके समीप उस बालहंसको रखकर आपने ऐसा कहा था कि हे हंस ! तू कमलोंका विरह भोगनेमें समर्थ नहीं है इसलिए आज इन स्त्रियोंके स्तनरूपी कमलोंकी बोंडियों में विहारकर क्रीडा कर ॥३६।। इस तरह आप उस हंसके बच्चेको कुटिल केशोंवालो स्त्रियों के साथ निरन्तर क्रीड़ा कराते हुए सुखसे रहते थे। किसी दिन धर्मज्ञ मनुष्योंमें अग्रेसर तुम्हारे पिताने हंसके बच्चेको बन्धनमें डालनेका समाचार सुना तो वे बहुत कुपित हुए । उन्होंने तुम्हें बुलाकर अनेक प्रकारसे धर्मको परिपाटी-परम्पराका उपदेश दिया । तदनन्तर कानोंके लिए अमृतके समान आचरण करनेवाले उस धर्मोपदेशके ज्ञानसे तुम्हारा वैराग्य बढ़ गया इसलिए पिताके रोकनेपर भी तुमने वैराग्यसे प्राप्त जिनदीक्षामें कठिनाईसे आचरण करने योग्य तपश्चरणमें दक्ष हो अपनी आठों स्त्रियोंके साथ सर्वश्रेष्ठ तप धारण कर लिया । अन्तमें अपने किये हुए पुण्यके फलस्वरूप सहस्रार नामक बारहवं स्वगेमें देव हुए और चिरकाल तक वहाँके सुख भोगकर पृथिवीतल पर इन्हीं आठ स्त्रियोंके साथ आप राजा जीवन्धर हुए हैं। हे श्रेष्ठ राजन् ! आपने पूर्व भवमें राजहंसके शिशुका उसके माता-पिताके साथ वियोग किया था उसके फलस्वरूप आप भी चिरकाल तक माता-पिताके विरहको प्राप्त हुए है ॥३७॥ इस प्रकार राजा जीवन्धरने छोटे भाइयों, अपनी स्त्रियों तथा अन्य स्नेही लोगोंके साथ मुनिराजके वचन सुने । सुनते ही जिस प्रकार वज्रपातसे साँप डर जाता है उसी प्रकार वे राज्यसे डर गये । मुनिराजकी पूजाकर वे नगरमें आये और संसारसे प्रकट होने वाले सुखको हलाहलके समान दुःखरूप मानने लगे । उन्होंने तप धारण करनेमें अपनी बुद्धि स्थिर की ॥३८॥

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