Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 383
________________ ३२६ जीवन्धरचम्पूकाव्य उस समय शत्र सेनाको भयसे भागती देख दयाकी खान जीवन्धर स्वामीने तत्काल ही अभय घोषणा करा दी और शत्रुके दीन भाई-बन्धुओंको बुलाकर उस अवसरके योग्य संभाषण आदिके द्वारा उन्हें शान्त कर दिया। आज विजया विजयी पुत्रके द्वारा वीर माता हुई और चन्द्रमाके समान मुखवाली मेरी पुत्री चिरकालके लिए वीरकी पत्नी हुई ॥ १२३ ॥ ऐसा कहकर मामा गोविन्दराजने कुलका उद्धार करनेवाले जीवन्धर स्वामीका कौतूहलके साथ अभिनन्दन किया ॥ १२४ ॥ क्षुद्र कृतघ्नकाष्टाङ्गारके संगसे लगे हुए दोषको दूर करनेकी इच्छासे पृथिवीने जीवन्धर स्वामीके विशाल दोषका आश्रय लिया था यह आश्चर्यकी बात थी (पक्षमें दीर्घ भुजाका आश्रय लिया था) ॥१२५।। तदनन्तर जीवन्धर स्वामी राजमहलकी ओर चले। इस बीचमें वे चारों ओरसे हस्तकमल जोड़कर खड़े हुए सामन्त राजाओंके नमस्कारको अवलोकनके द्वारा स्वीकृत करते जाते थे। जिस प्रकार उदयाचलपर सूर्य सुशोभित होता है उसी प्रकार वे मदस्रावी हाथीपर सुशोभित थे। दूरसे पीठ-पीछे आनेवाले सेनापति प्रत्येक क्षण उनके दर्शनके योग्य अवसरकी प्रतीक्षा करते थे । हाथियोंपर बैठे हुए गरुड़वेग, गोविन्द, पल्लव नरेश, तथा लोकपाल आदि राजाओंसे उनका समीपवर्ती प्रदेश घिरा हुआ था। रथोंपर बैठे हुए नन्दाव्य आदि भाई तथा पद्मास्य आदि मित्र उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। अपने प्रसन्न मुखरूपी चन्द्रमाके देखनेसे उल्लसित होनेवाले सेनारूपी समुद्रसे उनका अग्रभाग व्याप्त हो रहा था। बड़े हर्ष और उद्वेगके साथ पहनाकर जिन्होंने वेगसे अपने छत्र उतारकर दूर कर दिये थे, जो परस्परके उत्पीड़नसे कुपित घोड़ोंके रोकनेका कष्ट सहन कर रहे थे, समीपमें खड़े हुए काष्ठाङ्गारके भाई-बन्धु एक-एकका नाम लेकर जिनका परिचय करा रहे थे और प्रणाम करते समय विचलित हुए मुकुट तटमें लगे पद्मराग मणियोंकी प्रभाके फैलनेके बहाने जो अपना अनुराग प्रकट कर रहे थे, ऐसे शत्रुपक्षके राजाओंका वे यथायोग्य सम्मान करने जाते थे। युद्ध में प्राप्त शत्रुलक्ष्मीके निवासभूत विकसित कमलके समान दिखनेवाले अथवा अपनी सेनारूपी समुद्रकी फेनराशिकी शङ्का करनेवाले छत्रसे वे सुशोभित थे। दोनों ओर ढोले जानेवाले चामरोंकी वायुसे उनके कर्णाभरण हिल रहे थे। आगे-आगे 'जय हो' 'जय हो' इस तरह ऊँची और मधुर आवाज़से पढ़नेवाले चारण लोग उनके यशका वैभव बार-बार बखान रहे थे। इस तरह क्रमसे नगरीमें जाकर उन्होंने ध्वजा, कलश, तोरण, चदोवा, आदि आठ प्रकारकी शोभाओंसे अलंकृत गलियोंमें प्रवेश किया। नगरको समस्त युवतियोंके बाहुरूपी बाँसोंसे निकले मोतियोंके समान सुशोभित पुष्प और लाई के उपहारसे उनका सत्कार किया जा रहा था। इस प्रकार चलकर वे राजमहलमें पहुँचे । वहाँ उन्होंने समस्त राजाओंको विदा किया और परिमित परिवारके साथ अन्तःपुरमें प्रवेश किया । वहाँ शत्रुकी स्त्रियोंको शोकरूपी सागरमें निमग्न देख शीघ्र ही सान्त्वना देनेके लिए तत्पर हो गये-दयाकी खान जो ठहरे ॥ १२६॥ तदनन्तर जीवन्धर स्वामीने शोक और भयसे दीन अन्तःपुरके लोगोंको अपने पास बुलाया। उनमें कुररीके समान रोती हुई काष्टाङ्गारकी स्त्री तथा उसके पुत्रोंको देखकर उनका हृदय दयासे लहराने लगा। निदान, सान्त्वना देनेकी कलामें प्रवीण जीवन्धर स्वामीने अमृतके समान मधुर और विचित्र वचनोंके द्वारा उन सबको धैर्य बंधाया। तदन तर जब सूर्य पश्चिम समुद्रमें निमग्न हो गया तब हाथोंमें मणिमय दीपक लेनेवाले लोगोंसे सेवित होते हुए इन्होंने मित्रोंके साथ धन-मणियोंके समूह, वस्त्र तथा अन्यान्य उज्ज्वलवस्तुओं से सुशोभित भण्डारमें धीरे-धीरे प्रवेश किया ॥ १२७ ॥

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