Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 382
________________ दशम लम्भ ३२५ इस प्रकार काष्ठाङ्गारके अहंकारपूर्ण दुर्वचन सुनकर जीवन्धर कुमारने भी ऐसा कहा कि रे कृतघ्न ! मेरे सामने निर्लज्ज होकर बके जा रहा है । तेरा पराक्रम में पहले देख चुका हूँ । तेरे समान इस पृथिवी पर कोई भी दिखाई नहीं देता जो कि प्रभुके साथ द्रोह करनेमें समर्थ हो ॥११४॥ अरे शत्रु ! चुप रह, चुप रह । तू एक ही तीनों जगत्में सबसे अधिक पापी प्रसिद्ध है। प्राण हरनेवाला मेरा बाण आगे जा रहा है तू युद्धमें अपने प्राणोंकी रक्षाका प्रयत्न कर ॥११॥ इस प्रकार कहनेवाले जीवन्धर स्वामी की वज्रगर्जनाकी शङ्का प्रदान करनेमें निपुण प्रत्यञ्चाके शब्दसे जिसके प्राण ( पक्षमें डोरी) काँप रहे थे और जो मजबूत धनुषकोटिसे सहित था ऐसे धनुषरूपी सपको खींचकर विषज्वालाके समान आचरण करनेवाले बाण, काष्ठाङ्गार बड़े क्रोधसे जीवन्धर स्वामीकी ओर बरसाने लगा। इधर वीर जीवन्धर स्वामी भी शत्रुके धनुषसे निकले हुए अनेक गम्भीर बाणोंको बीचमें ही काट-काटकर, जिनके धारण करने, खींचने और छोड़नेका पता ही नहीं चलता था ऐसे बाण शत्रुपर बरसाने लगे ॥११६। जिस प्रकार किसी वादीके मुखसे अपना पक्ष ग्रहण करनेवाले चतुर शब्द निकला करते हैं। उसी प्रकार उस समय युद्धमें पङ्ख धारण करनेवाले अनेक समर्थ बाण जीवन्धर स्वामीके धनुषसे निकल रहे थे ॥११७।। उस समय रणाग्रभागमें जीवन्धर स्वामी की बाणवर्षासे आकाशस्थली ऐसी हो गई थी कि उसका सूर्य तत्काल ही छिप गया था और पृथिवी भी ऐसी हो गई थी कि उसमें शत्रु राजाकी सेना छिप गई थी॥११८॥ विशाल पराक्रमके धारक जीवन्धर स्वामीने बाणरूप पिंजरेके द्वारा. शत्रुरूपी पक्षियोंके समूहको इस प्रकार बाँध दिया कि वह चलने फिरनेमें असमर्थ हो गया ॥११६।। उस समय जिनके भुजदण्ड उत्कृष्ट पराक्रमसे प्रसिद्ध थे, बाणोंका तरकससे निकालना, डोरीपर रखना, खींचना और छोडना ये क्रियाएँ जो मानो एक साथ ही करते इनका अन्तर सिर्फ देव लोग ही समझ पा रहे थे, जो परस्पर एक दूसरेको जीतनेकी इच्छासे योग्य अवसरकी खोजमें थे, जिनकी आश्चर्यपूर्ण कार्यकी चतुराई देखनेके समय संतुष्ट हुए देवोंके हस्तकमलों द्वारा बरसाये हुए कल्पवृक्षके फूलोंसे जिनके समीपवर्ती प्रदेश ऊँचे हो रहे थे, जो बीचमें घुसी हुई मृत्युकी नाकके समान आचरण करनेवाले भुजदण्डपर चक्राकार धनुष धारण करनेके कारण यमराजकी कोप कुटिल भ्रकुटियोंका संशय उत्पन्न कर रहे थे जिनका उत्साह बढ़ा हुआ था, और जो भयंकर युद्ध कर रहे थे ऐसे जीवन्धर स्वामी और काष्ठाङ्गारके बाणोंकी परस्परकी टक्करसे जो अग्निके तिलगे निकल रहे थे वे मेघमालाके बीचमें घुसने पर भी शान्त नहीं हो रहे थे। उस युद्ध में प्रसन्नचित्त एवं शूर वीर जीवन्धर स्वामीकी बाणावलीरूपी शरद्ऋतुके द्वारा जब शत्रु राजाओंके बाणरूपी मेघोंका समस्त समूह छिन्न शरीर होकर क्षण भरमें खण्डित हो गया तब जीवन्धर स्वामीकी सेना ठीक नदीके समान सुशोभित होने लगी थी क्योंकि जिस प्रकार नदीमें कमल विकसित रहते हैं उसी प्रकार उस सेनामें मुख विकसित हो रहे थे और जिस प्रकार नदीमें राजहंस पक्षी सुशोभित होते हैं उसी प्रकार उस सेनामें बड़े-बड़े राजा सुशोभित हो रहे थे ।। १२० ।। शत्रुओंके शस्त्रसमूहका निवारण करनेवाली जो अत्यन्त देदीप्यमान ढाल जीवन्धर स्वामीके हस्तकमलमें स्थित थी युद्धमें शत्रु काष्ठाङ्गारने उसका आधा भाग काटकर अपने हाथमें ले गर्जना की। ढालका वह आधा भाग राहुके द्वारा ग्रस्त चन्द्र-मण्डलके अर्ध भागके समान जान पड़ता था ॥ १२१॥ फिर क्या था, जीवन्धर स्वामीने क्रोधमें आकर प्रत्येक दिशामें जिसकी ज्वालाएँ निकल रही थीं ऐसा चक्र शत्रुके गलेपर गिराकर शीघ्र ही उसका मस्तक काट डाला। देवोंने बहुत अधिक पुष्प बरसाये और कुरुओंकी सेनामें हजारों प्रशंसाओंके साथ-साथ लोकमें हलचल मचा देनेवाला कोई आश्चर्यजनक कोलाहल हुआ ॥१२२।।

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