Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 388
________________ एकादश लम्भ ३३१ योग्य उत्तम क्षेत्र प्रदान करनेके लिए उद्यत हुए तब विजयादेवीने पूर्वकृत उपकारोंकी स्मृतिसे उत्पन्न हर्षके कारण उस क्षेत्रका स्वामित्व तपस्वियोंके लिए दिला दिया। तदनन्तर किसी समय समस्त शीलवतोंकी खान एवं विशाल-बुद्धिकी धारक राजमाता विजया यह जानती हुई विरक्त हो गई कि मैं इस कुटिल संसार में विशाल यशके धारक तथा पराक्रमसे शत्रुओंको जीतनेवाले पुत्रपर इसके पिताका पद देख ही लिया है अब मुझे अन्य किस बातकी आवश्यकता है ? ॥७॥ तत्पश्चात् विजया देवीने अपनी आठों बहुओंको पास बुलाकर कहा कि जिनके केश अत्यन्त कुटिल हैं, जिनकी शरीररूपी लता सुवर्ण वल्लीके समान है, जो निमर्याद गुणोंसे सहित हैं और जो हंसके समान चालवाली हैं ऐसी हे मेरी बहुओ ! तुम लोग मुझे पहले, स्वप्नमें आठ मालाओंके रूपमें दिखी थीं और इस समय धारण की हुई नूतन मालाओंके रूपमें दिख रही हो। आप लोगोंका वैभव इसी तरह उत्तरोत्तर बढ़ता रहे, यह कहकर उसने प्रकृत वातको इस तरह प्रकट किया। हे पूर्ण चन्द्रके समान मुखवाली बहुओ ! आज मेरे हृदयमें इस सारहीन भयङ्कर संसार के विषयमें विरक्ति उत्पन्न हो रही है और वही विरक्ति मुझे दीक्षा लेनेके लिए शीघ्रता कर रही है ॥८॥ आप लोग भी कुरुवंशरूपी वंशलताके मोतीके समान आचरण करनेवाले पुत्र उत्पन्नकर निरन्तर पतिके साथ सुखका अनुभवकर अन्तिम अवस्थामें दीक्षा धारण करनेके योग्य हैं। . सासके यह वचन सुनकर बहुओंका मन शोकसे विह्वल हो गया और वे अपना मुखकमल नीचाकर सासके सामने बैठी रहीं ।।६।। इसके बाद विजया देवीने प्रिय पुत्र जीवन्धर राजाको पासमें बुलाया और जिस प्रकार मेघमाला अपनी ध्वनिसे हंसको दुखी करती है उसी प्रकार वह वैराग्यके वचनोंसे पुत्रको दुखी करने लगीं ॥१०॥ उसी समय गन्धोत्कटकी पत्नी सुनन्दाको भी वैराग्य उत्पन्न हो गया अतः उसके साथ महादेवी विजयाने अत्यन्त दुखी राजा जीवन्धरको बड़ी कठिनाईसे समझाकर पद्मा नामकी उत्तम आर्याके पास विधिपूर्वक दीक्षा ले ली । आर्यिकाओंमें अग्रगण्य पद्मा नामकी आर्यिकाने विजया और सुनन्दाके लिए आर्याका पद दिया और राजा जीवन्धरको यह कहकर समझाया कि आकाशसे पड़ती हुई रत्नवृष्टिके समान दीक्षाका निषेध नहीं करना चाहिए । इस प्रकार मधुर वाणीसे समझाये हुए धीर वीर राजाने दोनों माताओंके चरणकमलोंमें विनयपूर्वक नमस्कार किया और फिर परिवार के साथ अपने घरमें प्रवेश किया ॥२२॥ तदनन्तर कुछ दिन व्यतीत होनेपर क्रमसे, जिस तरह सरसियोंके जलमें चन्द्रमाके प्रतिबिम्ब प्रवेश करते हैं उसी तरह आठों देवियोंके उदरमें गर्मों ने प्रवेश किया। दर्पणकी लक्ष्मीके समान जो गन्धर्वदत्ता आदि देवियाँ थीं उन्होंने गर्भके बहाने प्रतिफलित राजाके प्रतिबिम्बको धारण किया था ।। १२ ।। उस समय उन देवियोंका मुख खिले हुए कमलके समान सुशोभित हो रहा था और चक्रवाक पक्षीके जोड़ेकी तुलना करनेवाला स्तनांका युगल, चूचूकतल कृष्ण हो जानेके कारण, जिसका अग्रभाग तमालपत्रसे सुशोभित है ऐसे नवनिर्मित सुवर्ण घटके समान जान पड़ता था ॥१३।। उन देवियोंके मध्यभागने भी उस समय दुर्बलता छोड़ दी थी तथा प्रतिदिन स्थूल होते रहनेके कारण वह मणिमय करधनीसे दुखी रहता था ।।११४।। तदनन्तर प्रसवका समय आनेपर शुभ दिनमें जब कि घड़ीका ज्ञान करानेवाले साधनोंमें स्वाधीन चित्तवाले ज्योतिषी लोग सावधान होकर लग्न निकाल रहे थे, देवियोंने उस तरह पुत्रोंको उत्पन्न किया जिस तरह कि मेघमाला बिजलीको उत्पन्न करती है । पश्चात् बहुत भारी हर्षसे जिनके नेत्र विकसित हो रहे थे ऐसे राजा जीवन्धरने पुत्रोंको देखकर शुभ दिनमें महोत्स

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