Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 375
________________ जीवन्धरचम्पूकाव्य वीरोंमें आगे-आगे चलनेवाले किसी पैदल सिपाहीका मुखभाग, प्रसिद्ध शत्रुकी तलवारसे खण्डित मस्तकसे झरनेवाली खूनकी धारासे भयंकर दिख रहा था और उससे वह ऐसा जान पड़ता था मानो बाहर निकलकर फैलनेवाली क्रोधकी परम्परासे ही व्याप्त हो रहा हो। 'स्वामी का कार्य समाप्त हुए बिना प्राणोंका निकल जाना अच्छा नहीं, इसलिए प्राणोंको रोकनेके लिए ही मानो उसने अपने खण्डित मस्तकको साफासे कसकर बाँध लिया और फिर एक ही साथ हाथमें तलवार, मनमें धैर्य, शत्रुपर दृष्टि और पृथिवीतलपर हजारों शत्रुओंके मस्तकोंका पतन करता हुआ देवोंकी प्रशंसाओं और पुष्पवर्षाओंका पात्र बन गया। उस समय रणाग्रभागमें जब दोनों सेनाएँ परस्पर मिल गई तब यही विशेषता रह गई थी कि चाहे अपना हो चाहे पराया, जो जिसके आगे था वही उसका शत्रु समझा जाने लगा था॥६१॥ उस समय क्रोधसे व्याप्त योद्धाओंकी धनुषरूपी लताएँ जब शत्रुओंके बाणोंसे कट जाती थीं तब वे चञ्चल तलवारोंसे, जब तलवारें टूट जाती थीं तब हाथोंसे, जब हाथ कट जाते थे, तब पैरोंसे और जब पैर कट जाते थे तब दुर्वचनोंसे परस्पर एक दूसरेको मारते थे। इस प्रकार जहाँ विजयदुन्दुभियोंके शब्दसे आकाश भर रहा था ऐसा भयानक युद्ध वृद्धिको प्राप्त हो रहा था। इसी समय पद्मास्यने देखा कि मथनके द्वारा छोड़े बाणोंकी अविरल धाराके पातसे हमारी सेना दीन हो रही है तो उसने हाथमें लिये हुए धनुषके विशाल शब्दसे दोनों ही प्रकारके महीभृतों-राजाओं और पर्वतोंको कम्पित कर दिया, क्रोधसे उसका मुख लाल हो गया और वह जिसके पहिये वेगसे घूम रहे थे ऐसे रथके द्वारा, शत्रु-सेनाको जलानेकी इच्छासे ही मानो उसके सामने जा पहुंचा। पद्मास्यके द्वारा छोड़े हुए बहुतसे बाणोंने शत्रकी सेनाके बीच में हजारों योद्धाओंको पृथिवी पर पंक्तिबद्ध गिरा दिया, घोड़ोंके शरीर फाड़ डाले, हाथियोंकी घटाको प्राणरहित कर दिया और कराहते हुए बहुतसे धनुषधारियोंको बाणोंसे छेदकर मार डाला ॥ ६३ ॥ उस भारी मारकाटके बीच पद्मास्यके अपरिमित बाणोंके समूहसे आकाश तथा शत्र की सेना भर गई । पृथिवी घायल योद्धाओं, घोड़ों और हाथियोंसे पट गई तथा दिशाएँ शत्रसेनाकी हाहाकारसे व्याप्त हो गई ॥ ६४ ॥ शत्र और उनके स्वामियोंके नये खूनसे नदियोंको उत्पन्न करता हुआ पद्मास्य अपनी सेनारूपी समुद्रको सन्तुष्ट कर रहा था । ६५॥ 'नामके अक्षर मलिन न हो जावें' इस भावनासे • ही मानो उस समय पद्मास्यके बाण राजाओंके हृदयमें प्रविष्ट होकर केवल उनके प्राण ग्रहण करते थे किन्तु खूनका अंश भी ग्रहण नहीं करते थे। ६६ ॥ इस प्रकार अपनी सेनाका क्षोभ देख जिन्हें तत्काल ही क्रोध उत्पन्न हुआ था ऐसे मगध और मागध नामके दो राजा धनुषको टेढ़ाकर जिसकी गतिको कोई रोक नहीं सकता था ऐसे रथके द्वारा वेगसे पद्मास्यके सामने आये। उस समय वे अपने सैनिकरूपी मयूरोंके लिए धनगर्जनाके समान आनन्द देनेवाले सिंहनादके द्वारा शत्रुजनोंका धैर्य उखाड़ रहे थे। - जिस प्रकार सूर्यकी ओर राहु दौड़ता है उसी प्रकार रथपर आरूढ़ हुए मागध नामक राजाकी ओर धनुषधारी देवदत्त दौड़ा ॥६७।। तदनन्तर अत्यन्त बलवान् भुजदण्डके धारक मथन और पद्मास्यका तथा मागध और देवदत्तका वचनागोचर युद्ध हुआ । जिनकी धनुषरूपी लताएँ हाथकी शीघ्रतासे सदा कोरकित (वाणरूपी बोड़ियोंसे सहित ) रहती थीं ऐसे शत्रुओंके द्वारा निरन्तर छोड़े हुए बाणोंके समूहसे युद्ध देखनेके लिए आकाशमें इकट्ठे हुए देव लोग दूर हटा दिये गये थे। जो हस्तरूपी पात्रमें स्थित खूनके पीनेमें निरुत्सुक है और आश्चर्यसे जिनके नेत्र निश्चल हैं ऐसे प्याससे पीड़ित वेताल

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