Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 334
________________ पञ्चम लम्भ तदनन्तर जो सैनिक मरनेसे शेष रहे थे वे जीवन्धर कुमारके वाणरूपी अध्यापकसे सीखे हुए वेगका अभ्यास करनेके लिए ही मानो जब भिन्न-भिन्न दिशाओं में भाग गये तब धनुष, रथ आदि साधन-सामग्री नष्ट हो जानेके कारण काँपते हुए मथनको देख बड़ी गम्भीरतासे इस प्रकार बोले । २७७ आप जैसे भीरु योद्धापर मेरी यह भुजा बाण नहीं छोड़ना चाहती है इसलिए तू भाग जा, भाग जा, भय करना व्यर्थ है, राजाके लिए यह सब समाचार कह दे || ६ || जो कोई संसार के मध्य युद्धके प्रारम्भमें हम लोगोंको जीतने के लिए और अपनी कोर्ति दिशाओंके अन्तरालमें ले जानेके लिए अपने आपको चतुर मानता है वह दुर्बुद्धि है - मूर्ख है ॥७॥ यह वृत्तान्त सुनकर जिसके नेत्ररूपी अङ्गार क्रोध से प्रज्वलित हो रहे थे ऐसे काष्ठाङ्गारने फिर भी बड़ी भारी तैयारी के साथ सेना भेजी । उसे देख दयार्द्रहृदय जीवन्धर कुमारने विचार किया कि क्षुद्रप्राणियों का वध करनेसे क्या लाभ है ? ऐसा विचारकर उन्होंने युद्धको इच्छा छोड़ दो और समस्त विघ्नोंको दूर करने में समर्थ सुदर्शन यक्षका स्मरण किया । यक्षराजने सेनाके साथ आकर राजाकी सेनाओंको शीघ्र ही शान्त कर दिया, जीवन्धर स्वामीको जयगिरि नामसे प्रसिद्ध गजराजपर बैठाया, सबके हृदय में कौतूहल उत्पन्न किया और अपने-आपको कृत-कृत्य बनाया || || गण्डस्थलों की मदधाराकी सुगन्धिके लोभसे आये हुए भ्रमरोंके समूह से वह जयगिरि नामका हाथी ऐसा जान पड़ता था मानो जीवन्धर स्वामी के चरण कमलोंकी सङ्गतिके कारण पापोंसे ही छूट रहा हो । तदनन्तर जीवन्धर स्वामी देवोपनीत हाथीपर सवार होकर सुदर्शनयक्ष के निवासस्थान चन्द्रोदय नामक पर्वतपर गये । उस समय वे दोनों ओर ढीले जानेवाले चँवरों से सुशोभित थे । उनके वे चँबर कभी तो मुखमें कमलकी भ्रान्ति से आये हुए हंस-हंसी की शङ्का उत्पन्न करते थे, कभी अनुरागसे भरी यक्षराजकी राज्यलक्ष्मीके द्वारा भेजे कटाक्षोंकी छटाके समान जान पड़ते थे, कभी ऊपरकी ओर चलनेवाले हाथी के दोनों दाँतोंसे निकलनेवाली कान्तिकी परम्पराके समान मालूम होते थे, कभी कमल और चन्द्रमाको जीत लेनेके कारण दोनों ओरसे मुखकी सेवा करते कीर्ति के दो बालकोंके समान सुशोभित हो रहे थे, कभी भुजदण्डपर रहनेवाली विजयलक्ष्मीके मन्दहास्यकी कान्तिके पूरके समान जान पड़ते थे और कभी क्षीरसागरके फेनके समूह के समान प्रतिभासित होते थे । देवोंके हस्तकमल द्वारा धारण किये सुवर्णदण्डसे सुशोभित सफ़ेद छत्र उनके शिरपर लग रहा था और वह छत्र ऐसा जान पड़ता था मानो यशसे पराजित होनेके कारण सेवाके लिए आया हुआ चारों ओर लटकनेवाले मोतियोंके बहाने नक्षत्रमण्डलसे सुशोभित चन्द्रमाका विम्ब ही हो, अथवा कीर्तिरूपी क्षीरसमुद्रके फेनका पुञ्ज ही हो, अथवा मुखमें चन्द्रमा की भ्रान्तिसे आया हुआ परिवेष, परिधिचक्र ही हो । उस समय समस्त देवलोग हाथ जोड़े हुए थे जिससे उनके अञ्जलिरूप कमलोंके पुञ्जके मध्य में जीवन्धर स्वामी हंसके समान सुशोभित हो रहे थे । मयूर-कुलकी नृत्यकलाकी शोभा प्रकट करानेवाले गम्भीर तुरहीके शब्दों से वे दशों दिशाओंके तटको बाचालित कर रहे थे । निरन्तर जलनेवाले कालागुरुकी धूपरेखासे उनका पार्श्ववर्ती प्रदेश सुगन्धित हो रहा था । उस समय वह कालागुरुकी धूमरेखा ऐसी जान पड़ती थी मानी सफ़ेद छत्रमें चन्द्रमाकी शङ्का होनेसे राहु ही समीप आ गया हो । निरन्तर निकलनेवाली चरणनखोंकी कान्तिके द्वारा अपने आक्रमणसे विदीर्ण हुए गण्डस्थलसे भरनेवाले मोतियों की शङ्का उत्पन्न कर रहे थे । एक साथ उदित हुए करोड़ों सूर्यो के समान विमानपर बैठे यक्ष लोग चारों ओरसे उनके वैभवकी स्तुति करते जाते थे । उनके सामने विद्युल्लताके समान जो देवियाँ नृत्य कर रहीं थीं उन्हें वे इस प्रकार देख रहे थे मानो वे निकलनेवाले कटाक्षरूपी अमृतकी

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