Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 337
________________ जीवन्धरचम्पूकाव्य द्वारा समस्त दिशारूपी महाभित्तियों को विदीर्ण कर दिया था, चातकोंको प्रसन्न किया था और स्वयं प्रलय कालके मेघ के समान जान पड़ते थे ।। २२ ।। यक्षराजके द्वारा कल्पित मेघोंके मण्डलने जंगली हाथियोंके समूहका ठीक उसी तरह अभिषेक किया था जिस तरह कि क्षीरसागर के निर्मल और शीतल जलके प्रवाहसे यक्षराजने जीवन्धर स्वामीका अभिषेक किया था ।। २३ ।। उस समय जो बिजली चमक रही थी वही मनोहर नृत्यकारिणी थी, आकाश ही दोवा था, मयूरोका समूह ही चारणोंका समूह था, मेघों का शब्द ही समस्त बाजोंका शब्द था और हवासे चलते हुए गुच्छे ही चमर थे ॥ २४ ॥ २८० तदनन्तर सुरक्षित हाथियोंके समूह और डालियों पर लगे बिन्दुसमूहके गिरने के बहाने हर्षाश्रु रूपी मुकुलोंको छोड़ने वाले वृक्ष समूहको देखते हुए जीवन्धर स्वामी संतोपके साथ उस वन से बाहर निकले। जगह-जगह मनुष्यका रूप रखनेवाली धर्मरक्षिका यक्षी उनकी सेवा करती थी । इस तरह तीर्थस्थानोंकी पूजा करते हुए वे क्रम से पल्लव देशमें पहुँचे । वहाँ संतोषपूर्वक विचरते हुए जीवन्धर स्वामी रूपी कामदेवने मार्ग में सामने दौड़ते हुए कुछ लोगोंको देखा || २५ || देदीप्यमान कान्तिके धारक जीवन्धर स्वामीको देखकर जिनके मन विस्मयरूपी सागर में निमग्न हो रहे थे ऐसे वे लोग बड़े हर्पसे उनके पास आये और विनयसे मधुर वचन कहने लगे ॥ २६ ॥ उन्होंने कहा कि यद्यपि आप चन्द्रमाके समान कुवलयाह्लादसंदायक हैं - पृथिवी - मंडलको आनन्द देने वाले हैं ( पक्षमें नील कमलोंको आनन्ददायी हैं) और निखिलमहीभृन्महितपाद हैं- समस्त राजाओं के द्वारा आपके चरण पूजित हैं ( पक्ष में सकल पर्वतों के द्वारा किरणें शिरपर धारित हैं ) तो भी दोपाकर दोपों की खान ( पक्षमें रात्रिकर ) न होनेसे आप चन्द्रमा नहीं हैं। यद्यपि आप सूर्यके समान पद्मोल्लासन-पटु हैं--लक्ष्मीका उल्लास बढ़ाने में समर्थ हैं ( पक्षमें कमलोंका विकास करने में समर्थ हैं ) और सन्मार्गाश्रित हैं - समीचीन मार्गका आश्रय करनेवाले हैं ( पक्षमें आकाशका आश्रय करनेवाले हैं ) तो भी सद्विरोध -- सज्जनोंके साथ विरोध ( पक्षमें नक्षत्रों के साथ विरोधका ) अभाव होनेसे आप सूर्य नहीं हैं । यद्यपि इन्द्रके समान सुमनोवृन्दवन्दित हैं — विद्वानोंके समूहसे वन्दित हैं ( पक्षमें देवोंके समूहसे वन्दित हैं) तो भी क्ष्माभृदनुकूलता – राजाओंकी अनुकूलता (पक्ष में पर्वतों की अनुकूलता) होनेके कारण इन्द्र नहीं हैं । यद्यपि आप बृहस्पतिके समान कुशाग्र तीक्ष्ण बुद्धिके धारक हैं तो भी मौढ्य-विरह-शिष्योंका अभाव ( पक्ष में मूढ़ताका अभाव ) होनेसे बृहस्पति नहीं हैं । इस प्रकार स्तुतिका विस्तार करने वाले लोगों से जीवन्धर कुमारने कुतूहल वश पूछा कि तुम लोग कौन हो ? कहाँके हो ? ॥ २७ ॥ इस तरह जीवन्धर स्वामोके पूछने पर उन लोगोंने भी निम्न प्रकार कहना शुरू कियावे कहने लगे कि इस पल्लव देशमें एक चन्द्राभपुरी नामकी प्रसिद्ध नगरी है जो कि हीरोंके गगनचुम्बी महलोंसे सार्थक नामवाली है और ब्रह्माके निर्माणसम्बन्धी चतुराईकी मानो अन्तिम सीमा है ।। २८ ।। उस नगरीमें रात्रि के समय मादक नेत्रों वाली स्त्रियोंके कपोलों पर जो चन्द्रमाका प्रतिविम्ब पड़ता है उसके बहाने वह ऐसा जान पड़ता है मानो उसके मुखकमलको कान्तिके चुरानेमें आसक्त ही है ॥ २६ ॥ उस नगरी में पताकाओंके वस्त्रसे आच्छादित होने के कारण सूर्यका आतपविरल हो गया है जिससे ऐसा जान पड़ता है मानो उस नगरीके कोटमें लगे रत्नोंकी कान्तिके पलटसे सूर्य तर्जित ही हो गया है- -- डर गया है ॥ ३० ॥ इन्द्रके समान कीर्तिको धारण करने वाला तथा शूर-वीरताकी खान धनपति नामसे प्रसिद्ध वह श्रीमान् राजा उस नगरका पालन करता है जो कि अहीनवपु होकर भी अभुजङ्गलील है

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