Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 362
________________ नवम लम्भ ३०५ का स्मरण और वर्तमान रूपके देखनेसे उत्पन्न हुए आश्चर्यके वशीभूत शिरके द्वारा मन्त्रके माहात्म्य की प्रशंसा ही कर रहा था । वह गलेके छिद्रमें रुके हुए कफके टुकड़ोंको बहुत प्रयत्नसे कुह-कुह शब्दके साथ निरन्तर उगल रहा था। स्थाविर-स्थितिशील-अजंगम ( पक्ष में वृद्ध सम्बन्धी) रूपको धारण करता हुआ भी धीरे-धीरे चल रहा था । और सुरमञ्जरीकी प्राप्तिमें दृतीका काम देने वाली वृद्धावस्थाका प्रेमी होकर भी वृद्धावस्थासे डरता था-यौवनशाली था। मायामय वृद्ध ब्राह्मणका रूप धारण करनेवाले जीवन्धर स्वामी क्रम-क्रमसे उस घरकी द्वारभूमिमें पहुंचे जिसके भीतर सुरमञ्जरी देदीप्यमान मणिमय दीपिकाके समान सुशोभित हो रही थी ॥८॥ वहाँ द्वारपालिनियोंने उस वृद्धसे पूछा कि आपके यहाँ आने का फल क्या है ? तब उसने उत्तर दिया कि कुमारी रूपी तीर्थकी प्राप्ति होना ही मेरे आनेका फल है। अपने इस प्रत्युत्तरसे उसने समस्त द्वारपालिनियोंके मुख अट्टहाससे विकसित कर दिये। उन द्वारपालिनियोंने दयावश उसे रोका नहीं जिससे वह उस महलके भीतर जा घुसा। यद्यपि महलके भीतर कितनी ही स्त्रियोंने 'मा-मा-यहाँ मत आइये ऐसा कहकर उसे मना किया था तो भी वह मानो वधिरताके कारण ही उस मनाईको अनसुनी करता हुआ धीरेधीरे प्रवेश करता जाता था । ___ तदनन्तर कुछ कमलनेत्री स्त्रियाँ भयसे व्याकुल हो सुरमञ्जरीके पास जाकर गद्गद वाणीसे इस प्रकार निवेदन करने लगीं। वे स्त्रियाँ झनझन शब्द करनेवाले नू पुरोंके शब्दसे दिशाओंके अन्तरालको शब्दायमान कर रही थीं । जल्दी-जल्दी चलनेके कारण हिलते हुए स्तनकलशोंसे ताडित चञ्चल मुक्ताहारकी कान्तिसे राजमहलके प्रदेशोंको प्रकाशित कर रही थी। हिलनेवाले केशसमूहकी सुन्दर पुष्पमालाओंपर बैठकर उड़नेवाले भ्रमरोंकी मनोहर झंकारसे वाचालित थीं और खनकती हुई मेखलासे युक्त थीं। ___उन स्त्रियोंने कहा कि जो पहले कभी देखनेमें नहीं आया ऐसा एक वृद्ध ब्राह्मण मना करनेपर भी घरके भीतर घुस आया है । सखियोंके यह वचन सुन कौतुकसे प्रेरित हुई सुरमञ्जरी भी उसे देखनेके लिए आ गई ॥१०॥ कमललोचना सुरमञ्जरीने सामने बैठे हुए उस अत्यन्त वृद्ध ब्राह्मणको भूखा देख सखियोंको आदेश दिया कि इसे बहुत आदरके साथ भोजन करा दो ॥११॥ तदनन्तर जब सखियाँ विधिपूर्वक भोजन कराकर उसे पासमें ले आई तब अपने मनोहर वचनोंकी चतुराईसे कोयलके स्वरकी मधुरताको जीतनेवाली सुरमञ्जरी उसे अपने आगे आसन पर बैठाकर कौतूहलके साथ पूछने लगी कि आप कहाँसे आये हैं और फिर कहाँ जावेंगे ? सुरमञ्जरीके वचन सुनकर उस वृद्धने धीरे-धीरे जिस किसी तरह इस प्रकार उत्तर दिया कि हे मनोहर ओठोंवाली मानिनि ! मैं इधर पीछेसे आया हूँ और आगे जाऊँगा ।।१२॥ यह उत्तर सुनकर समीपवर्ती लोगोंके मुख बहुत भारी हास्यसे सफ़ेद हो गये। उन्हें हँसता हुआ देख वृद्ध ब्राह्मणने कहा कि आप लोग मेरी वृद्धावस्थाजनित विपरीतताकी हँसी उड़ा रही हैं । क्रम-क्रमसे आपकी भी तो यही दशा होगी। सुरमञ्जरीने बड़े हर्षसे फिर पूछा कि आप कहाँ जाइयेगा ? वृद्ध ब्राह्मणने कहा कि जहाँ कन्याकी प्राप्ति होगी वहाँ जाऊँगा ॥१३॥ 'यह अवस्था और शरीरसे बूढ़ा है मनसे नहीं इस प्रकार शब्द कहती हुई सुरमञ्जरी स्वयं भोजन करनेके लिए चली गई और वहाँसे लौटकर आदर पूर्वक कहने लगी कि ॥१४॥ हे भद्र ! हे महाबुद्धिमन् ब्राह्मणोत्तम ! अब जहाँ आपकी इच्छारूपी लता अधिरूढ़ हो रही हो वहाँ शीघ्र चले जाइये ॥१५॥ ३१

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