Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 360
________________ अष्टम लम्भ ३०३ पुत्र के इन वचनों से माताने समझा कि मानो राज्य हमारे हाथ ही में आ गया है । जीवन्धर स्वामीने माताकी रक्षा के लिए कुछ परिजन और कुछ योग्य सामग्रीका समूह उसके पास रख छोड़ा। साथ ही उसे आश्वासन दिया कि तुम कुछ समय तक शोक छोड़कर यहीं पर रहो । कुछ ही दिनों में मैं तुम्हें बुलाने के लिए नन्दायको भेजूँगा । इस तरह माताको आश्वासन देकर तथा पूछकर जीवन्धर स्वामी मित्रोंके साथ चल दिये और कुछ समय बाद राजपुर के उपवनमें जा पहुँचे। वहाँ मित्रोंको ठहराकर धीर वीर जीवन्धर स्वामी वैश्यका वेष रख राजपुरी नगरी में प्रविष्ट हुए और वहाँकी गलियों में घूमते हुए नये-नये रत्नोंकी राशिसे सुशोभित एक बड़े बाजार में जा पहुँचे ॥६०॥ वहाँ मकानके आँगनमें सखियों के साथ गेंद खेलनेवाली किसी स्त्रीकी गेंद अनायास ही जमीनपर आ पड़ी थी उसे देखकर आश्चर्यचकित जीवन्धर स्वामीने ज्योंही ऊपर की ओर मुखकर देखा तो उन्हें मकानके अग्रभागसे झाँकती हुई एक स्त्री दिखी । नई जवानी से जिसकी कान्ति खिल रही थी तथा पुन्नाग पुष्पके गुच्छकके समान जिसके स्तन थे ऐसी उस कोमलाङ्गी मृगनयनीको देखकर जीवन्धर स्वामी मोहित हो गये ॥ ६१ ॥ इस तरह उसके सौन्दर्यकी तरङ्गमें जिनका मन निमग्न हो रहा था ऐसे जीवन्धर स्वामी उस गेंद को देखकर कहने लगे कि- हे कन्दुक ! जब उस चकोरलोचनाके भालपर नील केशोंका समूह, गण्डस्थल पर चोटी और दोनों स्तनोंके अग्रभागपर हार क्रीड़ा करता है तब तुम चञ्चल मणियोंसे निर्मित चमकीले कङ्कणों के शब्द से सुशोभित एवं अपने स्पर्श से अरुण कान्ति - लालकान्तिको पुष्ट करनेवाले कोमल हस्तकमलमें क्रीड़ा करते हो ||६२ || यतश्च आप निरन्तर वाण बरसानेवाले कामदेव के नामको धारण करने वाले हैं - अर्थात् जिस प्रकार कामदेवको कन्तुक नाम है उसी प्रकार आपका भी कन्तुक नाम है इसलिए मानो इस बिम्बोष्ठीने तुम्हें ताड़ित किया है || ६३ || जिसके मुखकमलपर स्वेद जलके छींटे रूप कोरक उत्पन्न हो रहे हैं, जिसकी नाकसे सुगन्धित सांसें निकल रही हैं, जिसके नथनेका मोती चञ्चल हो रहा है, जिसके कुच ऊपर की ओर उठ रहे हैं और जिसका मुख घुंघराले बालों से घिर रहा है ऐसी रमणीने यतश्च तुम्हें अपने हाथसे सरस आघात किया है इसलिए तुम धन्य हो - कृतकृत्य हो ||६४ || अपरिमित गुणोंके धारक जीवन्धर स्वामी हर्ष पूर्वक ऐसा कहते हुए उस स्त्रीके मकानके आगे जो चबूतरा था उसे सुशोभित करने लगे - उसपर बैठ गये ॥ ६५ ॥ उसी समय, जिसके नेत्र आनन्द के पूरसे विस्तृत हो रहे थे, मुख प्रसन्न था, और वचन कुशल-प्रश्नसे व्याप्त थे ऐसा एक वैश्यपति सामने आकर क्रमसे अपना प्रस्ताव रखने लगा । हे श्रीमन् ! मेरा सागरदत्त नाम है, मेरा ही यह घर है, मेरी पत्नीका नाम कमला है। विमला नामकी मेरी एक पुत्री है जो इस समय जवान हो रही है। 'जिसके आनेपर पूर्वसंचित मणियों का समूह बिक जायगा वही इसका पति होगा' ऐसा जन्मके समय ज्योतिषी लोगोंने कहा था ॥ ६६ ॥ यहाँ आपके प्रवेश करते ही जो पहले कभी नहीं बिका ऐसा बहुत भारी रत्नोंका समूह बिक गया है । इसलिए बहुत अधिक गुणोंसे गुम्फित, कामदेवको ठगनेवाले रूपसे युक्त, सुवर्णके समान कोमल कान्तिसे सहित, मेरी पुत्री के भाग्यसे आगत आपको ही उसके विवाहके योग्य होना चाहिए । अर्थात् आप ही उसके होनहार पति मालूम होते हैं । इस तरह उस वैश्यपतिने जब बहुत आग्रह किया तब जिस किसी तरह इन्होंने विवाहकी स्वीकृति दे दी ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406