Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 372
________________ दशम लम्भ झरनोंसे सहित नीलगिरि ही हों। जिनका शरीर दाँतोंकी उज्ज्वल कान्तिसे व्याप्त था इसलिए ऐसे जान पड़ते थे मानो चन्द्रमाकी किरणोंसे चुम्बित प्रलयकालके मेवोंकी विडम्बना ही कर रहे हों । जो दोनों कानोंमें लगे हुए सफेद चमरोंसे सुशोभित थे और उससे ऐसे जान पड़ते थे मानो पद्म नामकी समानताके कारण आये हुए हंसोंकी शङ्का ही उत्पन्न कर रहे हों । जो अपने चरणोंके निक्षेपसे पृथिवीको कँपा रहे थे और जो मेघोंकी सघन गर्जनाका अनुकरण करनेवाले अपने चिङ्घाड़के शब्दोंसे पहाड़की गुफाओंमें सुखसे सोते हुए सिंहोंको क्रोधवश उछलकर 'यह हाथियोंका शब्द कहाँ हो रहा है ?' इस तरह देखने में तत्पर कर रहे थे । वे सैनिक उन घोड़ोंसे सुशोभित थे जिनके आगेके दोनों चरण सूर्यके घोड़ोंको शिरपर ठोकर लगानेके लिए ही मानो ऊपरकी ओर पसर रहे थे । जो प्रलय कालके मेघके द्वारा छोड़े हुए ओलोंकी वर्षाके समान कठोर था, और पृथिवीतलको मानो जर कर रहा था ऐसे अत्यन्त कठोर-तीक्ष्ण खुरपुटके विन्याससे उत्पन्न धूलिके गुब्बारोंसे समस्त जगत्को अन्धा करनेमें जो निपुण थे । जो अपनी हिनहिनाहटके शब्दसे आकाशको भर रहे थे, जो गरुड़के मानो प्रतिद्वन्द्वी थे, हवाके मानो पर्याय थे, उच्चैः श्रवस् नामक इन्द्रके घोड़ेके मानो उदाहरण थे, और मनके मानो मूर्तिधारी वेग ही थे । वे सैनिक उन अपरिमित रथोंसे परिपूर्ण थे जो कि देवविमानोंके समान थे, जिन्होंने अपने चक्रोंसे पृथिवीतलको खोद दिया था और जो मनोरथोंके समान जान पड़ते थे । इनके सिवाय वे सैनिक उन पैदल सिपाहियोंसे भी घिरे हुए थे जो कि अपनी सिंहनादसे समस्त लोकको बहिरा कर रहे थे, जो अनेक प्रकारके शस्त्रोंसे अद्भुत जान पड़ते थे और जिन्होंने अपने शरीरपर कवच धारण कर रक्खे थे । वहाँ __ शरद् ऋतुके मेघके समान सफ़ेद गगनचुम्बी डेरोंकी पंक्ति ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो उस विचित्र युद्धको देखने लिए साक्षात् राजपुरी नगरी ही वहाँ आ पहुँची हो ॥३॥ वह युद्धका रङ्गस्थल बहुत अधिक सुशोभित हो रहा था। उसमें बड़ी-बड़ी हजारों गलियाँ बनाई गई थीं। उन सबसे वह विराजमान था । समस्त दिशाओंमें मदोन्मत्त हाथियोंकी घटासे अन्धकार छा रहा था इसलिए वह रङ्गस्थल वर्षाऋतुके दिनके समान जान पड़ता था। वह कपड़ेके उन तम्बुओंसे सुशोभित था जो कि गगनचुम्बी थे, विजयार्धकी शोभाकी हँसी उड़ा रहे थे, उज्ज्वल चूनाके समान सफेद थे। जिनपर लगी हुई वायुकम्पित सफेद पताकाएँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो मन्थान गिरिके द्वारा मथित क्षीरसमुद्रके बीचमें उठती हुई तरङ्गे ही हो अथवा जिनपर आकाश-गङ्गाका प्रवाह पड़ रहा हो ऐसी हिमालयकी चोटियाँ ही हों। जिनका शरीर नील रङ्गके कवचसे आच्छादित था और जो सफ़ेद रङ्गकी टोपी लगाये हुए थे, जो अत्यन्त ऊँचे वेत्रासनोंपर बैठे थे और धर्मसे तन्मय जान पड़ते थे ऐसे धर्माधिकारी महापुरुषोंके द्वारा उसमें सेनाओंके विभागकी व्यवस्था की जा रही थी। देदीप्यमान, पैनी एवं हाथमें धारण की हुई तलवारमें पड़नेवाले प्रतिबिम्बकी किरणरूपी अङ्करोंसे जिन्होंने घामको व्याप्त कर रक्खा था, जिनके मस्तक ऊपरसे आवृत थे और जिनके भुजदण्ड सफेद चन्दनसे लिप्त थे ऐसे सेवक लोग उस रङ्गस्थलकी द्वारभूमि पर अध्यासीन थे, जो अनेक वस्तुओंसे सजी हुई थी, जिनमें विक्रेय वस्तुको लेकर खरीदने और बेचनेवाले लोगोंकी निरन्तर भीड़ लगी रहती थी ऐसी बाजारकी बड़ी-बड़ी गलियांसे वह रङ्गस्थल सुशोभित था । यौवनके मदसे मत्ततरुण जन जिनके पीछे पड़े रहते थे ऐसी तरुणी स्त्रियोंके द्वारा वहाँ के वेशवाट निरन्तर भरे हुए थे । अनेक शस्त्रोंकी मरम्मतमें लगे हुए लोग शाणचक्र आदि मरम्मतके साधनोंको वहाँ बार-बार घुमाते रहते थे। उन सब साधनोंसे वह रङ्गस्थल सदा व्याप्त रहता था। उस समय युद्ध-क्रीड़ाके प्रारम्भको सूचित करनेवाले जय-जयके नारोंसे, बड़े-बड़े वादित्रोंके शब्दसे, घोड़ोंकी हिनहिनाहटसे, मदोन्मत्त हाथियोंकी गर्जनासे, रथोंकी चीत्कारसे, और पैदल

Loading...

Page Navigation
1 ... 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406