Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 370
________________ दशम लम्भ यदि यह सचमुच ही सत्यन्धरका लड़का है तो खेद है कि हम मारे गये क्योंकि इसमें वीरता, शूरता और पराक्रम आदि सभी गुण जागरूक हैं ॥२४॥ पहले मेरी आज्ञाको मालाकी तरह शिरसे धारण करनेवाले मथनने इस दुष्ट बनियेको किस प्रकार मारा होगा। इससे यह बात बिलकुल सच मालूम होती है कि सब लोग अपनाअपना स्वार्थ सिद्ध करनेमें तत्पर हैं । मैंने इसके मामाको किस लिए बुलाया था ? मुझ मूर्खराज को धिक्कार है जो कि अपना ही वध करानेके लिए कार्यको उठाता रहता है। समस्त राजा गोविन्द महाराजके किङ्कर हैं और वे ही इसे सहायता दे रहे हैं । तब यह वायुके द्वारा पुरस्कृत अग्नि के समान क्या नहीं करेगा ? इस प्रकार चिन्ता करता हुआ महामूर्ख काष्ठाङ्गार बहुत भारी गर्वके कारण जिसमें क्रोध बढ़ रहा था ऐसे भयङ्कर युद्धके द्वारा कन्याको छीननेकी इच्छा करता हुआ बड़ी-बड़ी सेनाओंसे युक्त क्षुद्र राजाओंके साथ सलाह करनेके लिए अपने घर चला गया। तदनन्तर दूसरेका अभिप्राय जाननेवाले एवं गोविन्द महाराजके साथ सलाह करनेवाले जीवन्धर कुमारने पिताके देशमें स्थित तथा अन्य परिचित राजाओंके पास स्पष्ट पत्रिकाओंके साथ भेंट धारण करनेवाले कितने ही नीतिनिपुण दूत शीघ्र ही भेजे ॥२५॥ उन्होंने पत्रमें लिखा था कि मैं सत्यन्धर महाराजसे विजया रानीमें उत्पन्न हुआ जीवक नामक पुत्र हूँ। उस समय कुटिल दैवने मुझे माता-पितासे वियुक्त करा दिया था जिससे वैश्यशिरोमणि गन्धोत्कटके घर में मैं वृद्धि को प्राप्त हुआ था ॥२६॥ यह दुराचारी काष्ठाङ्गार लकड़ी तथा कोयला आदि बेचकर अपने प्राणोंका पालन करता था। परन्तु क्रम-क्रमसे आपके राजाने इसे मन्त्री पदपर आरूढ़ कर दिया था और इसने उन्हींको मार डाला था यह बात आप सबको विदित ही है। इसलिए शत्रु होनेसे, राजाका हत्यारा होनेसे और कृतघ्न होनेके कारण यह दुष्ट जिस प्रकार मेरे द्वारा नष्ट करने योग्य है उसी प्रकार आप सबके द्वारा भी नष्ट करने योग्य हैं ॥२७॥ यह चाहे रसातलमें छिपे, चाहे पृथिवी तलमें छिपे, चाहे पर्वतमें छिपे और चाहे वनके मध्यमें छिपे, तो भी मारा ही जायगा इसलिए आपलोग अपनी-अपनी सेनाओंके साथ पधारें ॥२८॥ इस प्रकार जीवन्धर स्वामीका उक्त सन्देश शिरसे धारण करते हुए मण्डलेश्वर राजा, सत्यन्धर महाराजकी भक्तिसे प्रेरित हो अपनी-अपनी सेनाओंके साथ वहाँ आकर इकट्ठे हो गये ॥२६॥ तदनन्तर जीवन्धर कुमारका नयविशाल नामक दूत, नीतिके पारगमी धर्मदत्त नामक वृद्ध मन्त्रीके घर गया । सब समोचारोंको जाननेवाला मन्त्री उसे मिलानेके लिए राजमहलमें ले गया । इस तरह वृद्ध मन्त्रीके साथ दूत काष्ठाङ्गारके पास पहुँचा। उस समय काष्ठाङ्गार कुछ परिमित राजाओंसे घिरा हुआ था। विनयसहित शिर झुकाकर पास ही बैठे हुए मथनके साथ विश्वासपूर्वक वार्तालाप कर रहा था और क्रोधरूपी अग्निके निकलते हुए श्वासोच्छ्रासरूपी धुएँसे उसका मोतियोंका हार मटमैला हो रहा था। वहाँ जाकर धर्मदत्त मन्त्रीने कहा कि यद्यपि आप सब कुछ जानते हैं तो भी राजाको मन्त्रीके वचन सुनने चाहिये क्योंकि इन्द्र यद्यपि समस्त कार्योंको स्वयं देखता है तो भी बृहस्पतिके वचन अवश्य सुनता है ॥ ३०॥ इस समय उत्कृष्ट बलके धारक गरुडवेग, गोविन्द तथा पल्लव देशाधिपति आदि विद्याधर और भूमि-गोचरी राजाओं एवं नन्दाढ्य आदि महाबलवान मित्रोंसे जो परिवृत हैं, प्रलयकालके समुद्रके समान जिनका फैलाव निर्बाध है और जो समस्त पृथिवीतलपर प्रसिद्ध वीर हैं ऐसे जीवन्धर कुमार युद्धके लिए तैयार हैं। जिनमें हाथियों और घोड़ोंकी प्रमुखता थी ऐसी मेरी सेनाएँ भी जिन्हें बाधा नहीं पहुँचा सकी थीं उन व्याधोंको-भीलोंको अनायास ही जीतकर जिसने पहले समस्त पशुओं को छुड़ाया

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