Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 368
________________ दशम लम्भ ३११ दिशाओंका अवकाश भरा हुआ था। उस सेनामें जो घोड़े थे उनके मुखोंमें सुवर्णकी लगामें लग रही थीं । उनके ओठोंके पुट अत्यन्त चञ्चल थे जिसमें ऐसे जान पड़ते थे मानो सामने आये हुए आकाशका पान ही कर रहे थे। जिसमें पेटके छिद्र काँप उठते थे और संसारका मध्य भाग भर जाता था ऐसी हिनहिनाहटके शब्दसे वे वेगसम्बन्धी गर्वका भार धारण करनेवाले गरुडकी मानो भर्त्सना ही कर रहे थे। सवार लोगोंने जो उनका वेग रोक रक्खा था तज्जनित क्रोधके कारण मानो उनके नाकके नथने घुर-धुर शब्द कर रहे थे । उनको नाकका नथना डग डगपर फुर-फुर शब्द करता हुआ निरन्तर हिलता रहता था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वेगके द्वारा पी हुई वायुको नाकके छिद्रसे उगल ही रहे थे । साथ ही ऐसे प्रतीत होते थे मानो मूर्तिधारी वेगके समूह ही हो । बहुत ऊँचाई तक फहराती हुई पताकाओंके वस्त्रोंसे जिन्होंने सूर्यका रथ ढक लिया था, जो सेना रूपी समुद्रकी भँवरके समान जान पड़ते थे, बंधे हुए घण्टाओंके घण-घण शब्दसे जो निरन्तर शब्दायमान रहते थे और जिन्होंने अपने पहियोंसे पृथिवीतलको खोद दिया था ऐसे रथोंसे वह सेना सुशोभित थी । भिण्डिपाल, तलवार, पट्टिश, फरसा और द्रुघण आदि शस्त्रोंको धारण करनेवाले पैदल सिपाहियोंसे वह सेना सहित थी । इस प्रकार मयूरपंखसे निर्मित हजारों छत्रोंक द्वारा जिसमें दशों दिशाएँ अन्धकारसे युक्त हो रही थीं उस सेनाको आगेकर गोविन्द महाराज कितने ही पड़ावोंके द्वारा राजपुरीके निकट किसी स्थानपर ठहर गये। तदनन्तर जब कृतघ्न काष्ठाङ्गारको गोविन्द महाराजके आनेको खबर लगी तब उसने मायावश बहुत भारी मित्रताको धारण करते हुए के समान उपहार भेजे । इधर गोविन्द महाराज ने भी काष्ठाङ्गारका उपहार स्वीकृतकर शीघ्र उनसे बढ़कर उपहार उसके लिए भेजा ।।१३।। तदनन्तर अपनी सेनासे चित्रित काष्ठाङ्गारने सम्मुख जाकर जिनका बहुत भारी सन्मान किया था ऐसे गोविन्द महाराजने कुबेरपुरीकी समता रखनेवाली राजपुरी नगरीमें प्रवेशकर वहाँ अनेक रत्नोंके समूहसे चित्र-विचित्र स्वयंवर-शाला बनवाई और तीन वराहांसे शोभित चन्द्रक यन्त्रके भेदको कन्याका शुल्क निश्चितकर सब देशोंमें घोषणा करा दी। ___ फलस्वरूप हजारों प्रसिद्ध राजा, भेरीके शब्दसे समस्त लोकको चञ्चल करते एवं सेनाको धूलीसे आकाशको आच्छादित करते हुए उस श्रेष्ठ नगरीमें आ पहुँचे ॥१४॥ उस स्वयंवरशालामें राजा लोग अपने अनुयायियोंके साथ जब मञ्चोंपर आकर आसीन हुए तब वे सुमेरु पर्वतके शिखरोंपर आसीन इन्द्रोंके समान जान पड़ते थे ॥१५॥ वहाँ गोविन्द महाराजने घोषणा कराई कि जो बीचमें गड़े हुए घूमनेवाले यन्त्रको भेदन करेगा उस अतिशय महिमाके धारक युवाको मेरी पुत्री ठीक उसी तरह अलंकृत करेगी जिस तरह कि चन्द्रमाकी कला प्रदोष (सायंकाल ) को और इन्द्राणी इन्द्रको अलंकृत करती है। इस घोषणाको सुनकर 'मैं पहले भेदन करूँगा, मैं पहले भेदन करूँगा' ऐसा कहते हुए राजा लोग उठ कर खड़े हो गये। उस समय उनके वक्षःस्थलोंपर जो चन्दनके पङ्कके साथ-साथ केशरके तिलक लग रहे थे उनकी परागके समूहसे दशों दिशाएँ पीली-पीली हो रही थी। जोरसे उठनेके कारण उनके मोतियोंकी मालाएँ हिल रही थीं। उनकी चञ्चल नवीन मालाओंसे उड़कर जो भौरोंका समूह गुन-गुन कर रहा था उससे मानो उनके यशके गीत ही गाये जा रहे थे। और कानोंके आभूषण कानोंसे कुछ-कुछ खिसककर उनके गण्डस्थलोंको सुशोभित कर रहे थे । इन सब राजाओंसे वह स्वयंवर-मण्डप ऐसा जान पड़ता था मानो यन्त्र-भेदन करनेके लिए स्वयं ही उठकर खड़ा हो गया हो। वराहयन्त्रके चारों ओर खड़े हुए राजा लोग ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो कुलाचलके चारों ओर बिखरे हुए शिलाखण्डोंके टुकड़े ही हों ॥१६॥ तदनन्तर जब मगध देशके राजाकी

Loading...

Page Navigation
1 ... 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406