Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 358
________________ अष्टम लम्भ विजयदत्तसे पृथिवीमतीमें उत्पन्न हुआ देवदत्त है और ये दोनों जीवन्धरके अनुज नन्दाढ्यके छोटे भाई नपुल तथा विपुल हैं। __ इत्यादि क्रमसे सबके नाम हमने बतलाये । साथ ही हमने यह भी बतलाया कि हम सब उन्हीं जीवन्धरको उत्पत्तिके दिन उन्हीं महात्माके साथ उत्पन्न हुए थे इसलिए वैश्यपति गन्धोकटने उनके साथ ही हम लोगोंका अपने घरमें ही पालन-पोषण किया था ॥४२॥ तत्पश्चात् समस्त विद्याओंका अभ्यास करनेवाले जीवन्धरने पशुओंका समूह लौटानेके लिए धनुष हाथमें ले भीलोंका समूह जीता, फिर सभामें वीणा बजानेकी श्रेष्ठ विद्याके द्वारा गन्धर्वदत्ता नामको विद्याधर-पुत्रीको प्राप्तकर अनुपम कीर्ति पाई ।।४।। तत्पश्चात् वसन्तोत्सवके दिनोंमें जब नगरवासी लोग वन-विहारसे लौट रहे थे तब काष्ठाङ्गारका पट्ट हाथी दुरन्तमदके कारण किसीकी पकड़में नहीं आ रहा था जीवन्धरने उस हाथीका मद भङ्गकर गुणमाला नामक कन्याकी रक्षा की और कुछ ही समय बाद उसके साथ विवाह कर लिया। दुष्टोंका अग्रणी काष्ठाङ्गार क्रोधवश उन जीवन्धरको मारनेके लिए-- हम यह आधी बात ही कह पाये थे कि वह उसी क्षण चीखकर कहने लगी-हाय! हाय !! आप लोग दावानलसे जली हुई वनकी लतापर कुल्हाड़ी चला रहे हैं । इस प्रकार कहती हुई वह वज्रसे ताडित सर्पिणीके समान मूछित हो ज़मीनपर गिर पड़ी । कुछ समय बाद जब वह सचेत हुई तब कहने लगी कि तैयार हुआ परन्तु वे अपने प्रभावसे सुरक्षित रहे ॥४४॥ इस तरह यद्यपि हमने उससे पूर्ण वृत्तान्त कहा था, तो भी उसका चित्त शोकके आवेग से आक्रान्त था। इसी दशामें उसने निम्नप्रकार विलाप करना शुरू किया हाय-हाय ! मैं मर चुकी, यह क्या अनहोनी बात सुन रही हूँ, हाय पुत्र! तू कहाँ गया ? रे दुर्दैव! तू मेरे पुत्रपर बड़ा दुष्ट निकला, हा नाथ! तुम्ही एक उत्कृष्ट पुण्य चरितके धारक रहे जिन्हें कि इस दुर्दशाका पता ही नहीं है और स्वर्गलोकके सुख भोगते हुए चिरकालसे आनन्द उठा रहे हैं ॥४॥ हा पुत्र ! हा कुरुवंशके मित्र ! हा उत्तम लक्षणोंके धारक ! हा कमलसमान विशालनेत्रवाले ! इतने समय तक तेरे मुखचन्द्रका दर्शन भी मुझ अभागिनके लिए दुर्लभ रहा । और जिसके जन्मके पीछे मैंने दावानलके समान पतिका इतना लम्बा वियोग सहा, अपने नगरको छोड़कर जङ्गलमें रहना स्वीकृत किया और अब तक जीवित रही उसीके विषयमें ऐसो कथा सुन रही हूँ तब अब मैं कैसे रह सकती हूँ ॥४६॥ कृतघ्नोंमें श्रेष्ठ एवं दुष्टोंमें शिरोमणि भूत जिस काष्ठाङ्गारने युद्ध में तुम्हारे पिता सत्यन्धरको मारा था उसीने यदि तुम्हें स्वर्ग भेजा है-मारा है तब तो बड़े खेदके साथ कहना पड़ता है कि यह काष्ठाङ्गार कुरुवंशरूपी लताके लिए कुल्हाड़े का काम कर रहा है ॥४७॥ पतिका वियोग हुआ, जङ्गलमें रहना पड़ा, राज्य नष्ट हो गया और आज पुत्रका भी शोक उठाना पड़ा है। वास्तवमें मेरी दुर्भाग्यरूपी अग्नि भयङ्कर अग्निको भी जला देगी ॥४८॥ हा पुत्र ! तेरे विषयमें जो स्वप्न देखा था वह निष्फल हो गया, तेरे शरीरमें जो लक्षण थे वे भी व्यर्थ सिद्ध हो गये, पवित्र शरीरको धारण करनेवाली उस देवीने जो वचन कहे थे वे भी सच नहीं निकले । हा पुत्र ! मैं पतिके मरनेका शोकसागर तेरे द्वारा तैरना चाहती थी सो नहीं तैर सकी, जब तेरी यह दशा हुई तो मुझे भी तू अपने ही लोकमें आई समझ ।।४। इस तरह जिस प्रकार मेघमाला वज्र और पानी दोनों ही बरसाती है उसी प्रकार विलापके वश हो शोककी परम्परा और आपका वृत्तान्त दोनों ही एक साथ प्रकट करनेवाली उस पुण्यरूपिणी माताको हम लोगोंने बहुत प्रकारसे समझाया । उसके मुखसे हमलोगोंने

Loading...

Page Navigation
1 ... 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406