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अष्टम लम्भ
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मनुष्यका यश विदीर्ण हाथियोंके मुक्ताफलोंके बहाने अङ्कुरित होता है ॥३१॥ इसप्रकार कहने वाले सैनिकोंके युद्ध के लिए उद्यत हुए दोनों समूह परस्परमें उस तरह जुट पड़े जिस तरह कि बोलनेवाले मनुष्योंके दोनों ओठ जुट पड़ते हैं ॥३२॥
तदनन्तर एक ओर बहुत ऊँचे रथपर बैठे हुए जीवन्धर और दूसरी ओर वैसे ही रथपर बैठे हुए पद्मास्यसे जिनका मुखभाग–अग्रभाग तिलकित था, जो शत्रुसमूहको ग्रसनेके लिए फैलनेवाली यमराजकी जिह्वाओंके समान पट्टिश नामक शस्त्ररूपी लताओंसे परिवृत थे, शत्रुओंके प्राणरूपी वायुको ग्रहण करनेकी इच्छासे आई हुई सर्पिणियोंके समान तलवाररूपी लताओंसे सुशोभित थे, जो युद्ध देखनेके लिए पास आये हुए सूर्य और चन्द्रमाकी शङ्का उत्पन्न करनेवाले. सवर्ण तथा वज्रकी ढालोंसे मण्डित थे और जो विरोधी राजमण्डलरूपी चन्द्रमण्डलको ग्रसनेके लिए आई हुई राहुकी पंक्तियोंके समान दिखनेवाले शक्ति नामक शस्त्रोंसे भयङ्कर थे ऐसे दोनों ओरके सैनिकोंने बहुत भारी युद्धकौशल दिखाना शुरू किया।
उस समय जीवन्धर स्वामीके धनुषकी डोरीके शब्दोंसे, परस्पर एक दूसरेको काटनेवाले वाणोंके समूहसे घोड़ोंकी बहुत भारी हिनहिनाहट और हाथियोंकी चिंघाड़से आकाशमण्डल भर गया था इसलिए तीनों लोक, अन्यमतमें कहे हुए शब्दाद्वैतका अनुभव कर रहे थे ॥३३।। इस समस्त संसारको शब्दरूपी एक सागरमें निमग्न देख जो देव लोग युद्ध देखनेके आदरसे तत्काल ही आकाशमें इकट्ठे हो गये थे उन्होंने युद्ध करने में निरालस्य जीवन्धर स्वामीके धनुषसे निकलकर ऊपरकी ओर जानेवाले चमकीले वाणोंको आकाशमें एकत्रित हुए संध्याकालके बादल समझा था ॥३४॥ तदनन्तर पद्मास्य आदिके हाथोंकी कोमल एवं लाल कान्तिकी परम्परासे जिनमें मानो नये पल्लव लग रहे थे ऐसी धनुषरूपी लताओंसे चली हुई नामसे चिह्नित बाण रूपी भ्रमरोंकी पंक्ति जीवन्धर स्वामीके चरणकमलोंके समीप आई ।। ३५ ॥ जीवन्धर स्वामीके चरणकमलोंके समीप घूमनेवाले वाणसमूहरूपी भ्रमरने मित्रके (पक्षमें सूर्यके ) समीप आनेकी सूचना दी थी सो उचित ही किया था ॥३६॥
तदनन्तर नामाङ्कित वाणसमूह और फहराती हुई ध्वजाके चिह्न देखनेसे 'ये हमारे मित्र हैं। ऐसा निश्चयकर जीवन्धर स्वामी राजाके साथ पद्मास्य आदिके पास जा पहुँचे । उस समय उनकी शरीरलता खिले हुए रोमखण्डोंसे मानो कोरकित ही हो रही थी। वे सब मित्रोंसे बहुत सन्मानके साथ मिले । अथानन्तर अपनी आज्ञासे रथोंपर सवार हुए मित्रोंने जिन्हें आगे किया था ऐसे जीवन्धर स्वामी पासमें स्थित रथपर बैठे हुए राजाके साथ वार्तालाप करते हुए हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सिपाहियोंसे चित्रित सेनाको आगेकर क्रम-क्रमसे नगरके तोरणद्वारको लॉचकर आगे चले। चिरकाल तक देखते रहनेके कुतूहलसे इकट्ठे हुए नगरवासी लोगोंकी जिसमें बहुत भीड़ लग रही थी ऐसी गलियोंके बीच में हाथियोंके समूहको मेघमाला समझकर आई हुई बिजलियोंके समान चमकनेवाली सुवर्णमय वेत्रलताओंसे जब अवकाश हो जाता था तभी आगे बढ़ पाते थे। ज़ोर-ज़ोरसे बजनेवाले नगाड़े, काहली, डिण्डिम, झर्भर, झल्लरी, मृदङ्ग, शङ्ख आदि बाजोंके शब्दोंने जिन्हें बुलाकर इकट्ठा किया था। जिनमें कोई आधे आभूषण पहिने थीं, कोई अपने कर-कमलसे सुवर्णमय जरीके वस्त्रकी नीवी पकड़े हुई थी, किन्हींने करधनीके स्थानपर मोतियोंका हार पहिन रक्खो था, किन्हींने कङ्कणके स्थानपर पैरका नूपुर धारण कर रक्खा था और कितनी ही ऊँचे महलोंके झरोखोंसे झाँक रही थीं। ऐसी स्त्रियां उन्हें टिमकार रहित नेत्रोंसे देख रही थीं। इस तरह क्रम-क्रमसे चलते हुए वे राजभवनमें पहुँचे।
वहाँ जीवन्धर स्वामी मित्रोंसे कुशल-समाचार पूछकर मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए । मित्र लोग भी पहलेकी अपेक्षा इनकी सेवामें भिन्न प्रकारका कौशल दिखा रहे थे इसलिए इन्हें संशय उत्पन्न हो रहा था ॥३७॥