Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 354
________________ अष्टम लम्भ २९७ हुई वह विशालाक्षी मधुरभाषिणी कोयलकी तरह मधुर वचन बोलने लगी ॥१६।। उसने कहा कि तुम्हारे बड़े भाई चूंकि बहुत भारी पुण्यके वैभवसे मण्डित हैं इसलिए कुशल हैं तथा सुखसे युक्त भी हैं सिर्फ हम लोग ही पापके कारण यहाँ निरन्तर दुःखी हो रहे हैं ॥१७॥ चन्द्रमाके समान मुखको धारण करनेवाले तुम्हारे बड़े भाई देश-देशमें सुन्दरी स्त्रियोंके साथ विवाह कर आनन्दकी परमसीमाको प्राप्त हो रहे हैं । इस समय वे हेमाभपुरीमें वहाँ के राजाकी प्रसन्नमुखी पुत्रीको धारण कर रहे हैं ॥१८॥ इस प्रकार अगण्य पुण्यके कारण उनकी विपत्ति भी सुखरूपमें परिणत हो गई है। उसका उपभोग करते हुए वे सुखसे रह रहे हैं । निरन्तर नम्रीभूत रहनेवाले राजकुमारों के मुकुटोंकी पंक्ति उनके चरणकमलोंकी आरती उतारा करती है। यदि आप उनके दर्शन करना चाहते हो तो जा सकते हो। यह कहकर उसने हमें स्मरतरङ्गिणी नामकी शय्यापर सुला दिया और इस पत्रके साथ आपके पास भेज दिया। इस तरह छोटे भाईके मुखसे प्रकट हुए वचनोंके करुणापूर्ण प्रवाहमे जीवन्धर स्वामीके हृदयमें बहुत भारी संताप हुआ परन्तु उन्होंने मुखपर विकारका लेश भी नहीं आने दिया ॥१६॥ तदनन्तर उन्होंने भाईके द्वारा प्रदत्त गन्धर्वदत्ताका लिखा विचित्र प्रकारके अक्षरोंसे उपलक्षित पत्र बाँचा ||२०|| पत्रमें लिखा था कि हे आर्यपुत्र ! गुणमाला ऐसा निवेदन करती है__यह विषम कामदेव शरीरमें कृशता और ज्वरमें गुरुताकी वृद्धि कर रहा है तथा दयाकी चर्चासे रहित मृत्यु मुझसे बोलती भी नहीं है । हे आर्य ! आप नई-नई स्त्रियोंके सुखके वशीभूत हो मुझे भुलाकर मौज कर रहे हैं फिर चमेलोके पत्ते के समान कोमलाङ्गी तुम्हारी यह प्रिया किस तरह जीवित रहे ॥२१॥ हे आर्य ! हे प्रेमके सागर ! सच बात तो यह है कि स्तन हमारे वक्षःस्थल पर उत्पन्न हुए थे पर आपके वक्षःस्थल पर वृद्धिको प्राप्त हुए थे। हमारे वचनोंने आपके वचनोंके रससे परिचित होकर ही मुग्धता छोड़ी है और हमारी भुजाएँ माताके गलेसे दूर हटकर आपके कण्ठमें अर्पित हुई थीं। इस तरह हमारे आधार एक आप ही हैं अधिक क्या निवेदन करूँ ? ॥२२॥ इस प्रकार प्रिया गन्धर्वदत्ताने गुणमालाके बहाने जो पत्र लिखा था उसका मन ही मन विचार करनेवाले जीवन्धरका शरीर प्रियाके शोकसे विदीर्ण हो गया। उन्होंने बार-बार बड़े आदरके साथ मातृजन, मित्रगण और सती स्त्रियोंका कुशल-समाचार पूछा। इस तरह भाईके समागमसे उत्पन्न हुए बहुत भारी सन्तोषसे वे सुखपूर्वक बैठे थे। उस समय जीवन्धर स्वामीके पास बैठा हुआ नन्दाव्य ऐसा जान पड़ता था जैसा कि सुमेरु पर्वतके पास स्थित चन्द्रमा जान पड़ता है । जब अन्य राजकुमारोंको इसका पता चला तो उन्होंने कुशल-समाचारके साथ-साथ आकर इसे घेर लिया ।।२३।। - इस तरह भाईके मिलापसे संतुष्ट हृदय जीवन्धर स्वामीके पास जब अन्य राजपुत्र बैठे हुए थे तब किसी समय गोपालोंने आकर राजभवनमें बड़े दुःखके साथ इस प्रकार चिल्लाना शुरू किया। उस समय गोपाल लोग वेगसे दौड़कर आये थे इसलिए निरन्तर निकलनेवाली अर्ध्व श्वासोंकी सहायतासे मानो उनके शरीर काँप रहे थे तथा प्रचण्ड वायुसे चलते हुए बालवृक्षोंके समान जान पड़ते थे। उनके शरीरसे पसीनेका जल निकल रहा था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो भयानक रस ही भीतर नहीं समा सकनेसे बाहर निकल रहा था। इस तरह पसीनेके जल से मानो दीनताके साम्राज्यमें ही उनका राज्याभिषेक हो रहा था। गोपालोंने कहा कि हे राजन् ! क्रीड़ारूप नाटकके अश्वसमूहके खुरोंके संघट्टनसे उठती हुई गधेके समान धूमिल धूलकी पंक्तिसे जिहोंने आकाशका अवकाश कबलित कर लिया है ऐसे शत्रुओंने आपका समस्त गोधन छीनकर अपना बना लिया है तथा प्रत्यञ्चाकी उठती हुई टंकार ३८

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