Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 350
________________ सप्तम लम्भ पाण्डित्यसे मण्डित जीवन्धर कुमार उनका यह तमाशा देख रहे थे। उन्होंने हाथमें धनुष लेकर उसकी टंकारसे दिशाओंके अन्तरालको व्याप्त करते हुए वेगसे एक ही वाण छोड़ा और निशाना बनाकर बाण सहित उस फलको हाथमें ले लिया। ऐसा जान पड़ता था कि मार्गण-वाण (पक्षमें याचक ) के लिए फल प्रदान करनेवाला आमका वह उदार वृक्ष कल्पवृक्षपनेको प्राप्त हो रहा था। यदि ऐसा न होता तो वह सुमनोंपुष्पों (पक्षमें देवों) के द्वारा सेवनीय कैसे होता ? ॥४१॥ बाणविषयक कौशलके पारगामी जीवन्धर स्वामीके कर-कमलमें बाण सहित फलको आया देख राजकुमारोंका समूह शीघ्र ही आश्चर्य करने लगा और प्रशंसाके कारण उनके कर्णफूल नीचे गिरने लगे ॥४२॥ तदनन्तर एक राजकुमार विनयके साथ उनके पास जाकर डरता-डरता कहने लगा कि हे महाशय, हे धनुष विद्याके पण्डित ! यद्यपि मुझे आप जैसे सज्जनोंके साथ वार्तालाप करनेकी पद्धति ज्ञात नहीं है तो भी आपकी धनुर्विद्या सम्बन्धी चतुराईके देखनेके समय उत्पन्न हुआ विस्मय और सुवर्णके समान गौरवर्ण आपके शरीरकी सुन्दरता के अवलोकनसे उत्पन्न हुआ आनन्द मुझे वाचालित कर रहे हैं-प्रेरणा देकर बोलनेके लिए बाध्य कर रहे हैं। __इसलिए हे श्रीमन् ! उचित हो चाहे अनुचित, मैं आपसे एक प्रार्थना करता हूँ, आप मेरे वचन निश्चयसे कर्णगोचर कीजिये ॥४३॥ यहाँ एक बहुत बड़ी हेमाभपुरी नामकी नगरी है। रात्रिके समय इस नगरीके हीरोंसे निर्मित महलोंपर जब चन्द्रमाका प्रतिबिम्ब पड़ता है तब वह ऐसा दिखाई देता है मानो क्षीरसागरमें फिरसे निवास करने लगा हो ॥४४॥ उस नगरीमें प्रातःकालके समय जब पद्मराग-मणियोंके महल सूर्यको लाल-लाल किरणोंके साथ एकताको प्राप्त होते हैं तब सज्जन लोग अन्धकारकी तरह हाथके स्पर्शसे उनका निश्चय कर पाते हैं ॥४५॥ दृढ़ मित्र नामका प्रसिद्ध राजा उस नगरीका निरन्तर पालन करता है। कमलके समान निर्मल और लम्बे नेत्रोंको धारण करनेवाली एवं पृथिवीतलकी आभूषण स्वरूप नलिना उसकी स्त्री है ।।४६॥ उन दोनोंके सुमित्र आदि बहुतसे पुत्र हैं और मैं भी उनमेंसे एक हूँ। परन्तु हम सबके सब ठीक उसी तरह विद्यासे रहित हैं जिस प्रकार कि नदीसे रहित पर्वत होते हैं ॥४॥ हमारे पिताजी धनुषविद्यामें कुशल श्रेष्ठ मनुष्यको खोज रहे हैं सो जिनका भुजदण्ड पराक्रमसे हटाये हुए सामन्त स्त्रियोंके नेत्रोंके कज्जलकी शङ्का उत्पन्न करनेमें निपुण प्रत्यञ्चा सम्बन्धी भट्टकी कालिमासे सुशोभित है ऐसे आपके दर्शनसे वे ठीक उसी तरह परम आनन्दका अनुभव करेंगे जिस तरह मेघके दर्शनसे मयूर, चन्द्रमाके दर्शनसे समुद्र, वसन्तके दर्शनसे वनखण्ड और सूर्यके दर्शनसे कमलाकर परम आनन्दका अनुभव करता है। इसलिए हे विद्वन् ! हमारे पिताको इच्छा रूपी लताको जो कि इस समय पुष्पित हो रही है और विशाल नेत्रोंकी धारक सभाको सफल कीजिये ॥४८॥ दयाके सागर जीवन्धर स्वामी ने उस राजपुत्रके विनयसे सुशोभित वचन कानमें, राजदर्शनके लिए अनुमति मनमें, और अपने चरणकमल राजपुत्रोंके द्वारा सामने खड़े किये हुए रथपर एक साथ तत्काल ही धारण किये ॥४६॥ .... तदनन्तर जुदे-जुदे रथोंपर बैठे हुए राजपुत्रोंके द्वारा जिनका रथ घिरा हुआ है ऐसे जीवन्धर स्वामीने नगरद्वारमें प्रवेश किया। उस समय महलोंके झरोखोंसे झाकनेवाली स्त्रियाँ उन्हें बड़ी चाहसे देख रही थीं। क्रम-क्रमसे वे राजमहलके द्वारपर पहुँचकर रथसे नीचे उतरे । राजपुत्रोंने उन्हें आगे किया और द्वारपालोंने मार्ग दिया। इस तरह वे राजसभामें पहुँचे। . राजाने पुत्रके कहनेसे तथा जीवन्धर स्वामीका शरीर देखनेसे उनकी महिमारूप सम्पत्ति का ज्ञानकर उन्हें रत्नमय सिंहासनपर बैठाया, उन्हींके समीपमें पुत्रोंको बैठाया और नेत्ररूपी चकोरको उनके मुखरूपी चन्द्रमापर बैठाया अर्थात् अपने नेत्रोंसे उनके मुखचन्द्रकी और देखने लगा ॥५०॥ जिस प्रकार फूले हुए कमलसे मकरन्द झरनेके पश्चात् बहुत भारी सुगन्धिरूपी लक्ष्मी

Loading...

Page Navigation
1 ... 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406