Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 346
________________ सप्तम लम्भ तदनन्तर जीवन्धर स्वामी कृशाङ्गी क्षेमश्रीके निरन्तर संयोगरूप कारणसे होनेवाले असीम सुखका अनुभव कर किसी दिन रात्रिके समय पहले की तरह अकेले ही चल दिये और क्रमसे वनको पार भी कर गये ||१|| उधर प्राणनाथ के वियोगसे दुःखी होनेके कारण क्षेमश्रीकी बुरी हालत हो गई । उसकी कान्ति जली हुई रस्सी के समान श्याम एवं निःसार हो गई । वह दीर्घ नयनयुगल और दीर्घ निःश्वासको धारण कर रही थी । स्थूल स्तन और स्थूल संताप धारण कर रही थी । उसके केशों का समूह तथा चित्त दोनों ही तिमिरसमूहकी सहायता कर रहे थे - उसके समान काले थे । उसकी शरीरलता और कमर दोनों ही कृश थे। साथ ही वह दुःख रूपी सागरमें निमग्न रहती थी । पुत्री की ऐसी दशा देख सुभद्र सेठ भी बहुत दुःखी हुआ । फलस्वरूप उसने वनमें जाकर जहाँ-तहाँ जीवन्धर स्वामीकी खोज की पर जब उनका मार्ग नहीं मिला तब वह लौट आया । आकाशमें चन्द्रमाकी तरह वनके मध्य में घूमने के लिए चतुर दानवीर जीवन्धर स्वामीने किसी धर्मात्मा वनसेवकके लिए अपने मणिमय आभूषण देनेकी इच्छा की ||२|| उसी समय वनभूमिके मार्ग में कोई एक ऐसा पथिक उनके समीप आया जो कि हाथ में लम्बा परेना लिये था, कम्बलसे जिसका शरीर ढक रहा था, जिसकी कमर में हँसिया लटक रहा था और जिसके कन्धेपर हल रखा हुआ था । सो ठीक ही है क्योंकि प्राणियोंकी प्रवृत्ति भाग्यके अनुकूल ही होती है ||३|| जब वह पुरुष इनके पास आया तब नील कम्बल से शरीर आच्छादित होनेके कारण ऐसा जान पड़ता था मानो उस अज्ञानके पटलसे आवृत था जो कि भीतर नहीं समा सकनेके कारण बाहर भी फैल रहा था। उसके शिरपर मैला -कुचैला साफा बँधा हुआ था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो जीवन्धर स्वामीके दर्शनसे उसके पाप ही निकले जा रहे हों । वह कान्ति और जाति दोनों ही की अपेक्षा जघन्य वर्ण था - कान्तिहीन एवं शूद्र वर्ण का था । उसे समीप आया देख दयालु जीवन्धरने पूछा कि कहो कुशल तो है ? जिस प्रकार गम्भीरता प्रभुत्वका आभूषण है और सौम्यता औदार्यका आभरण है प्रकार सुलभता - छोटे-बड़े सबसे मिलना महत्ताका आभूषण है || ४ || अकेला महत्त्व सुमेरु पर्वतमें भी है और अकेली सुलभता ढेले में भी प्रसिद्ध है परन्तु महत्त्व और सुलभता ये दोनों अन्यत्र कहीं एक साथ नहीं दिखीं । हाँ, जीवन्धर स्वामीमें अवश्य ही दोनों एक साथ स्पष्ट रूपसे निवास कर रहे थे ||५|| उस शूद्र मानवने भी विनम्र हो जीवन्धर स्वामीसे कहा कि कुशल है और आज आपका दर्शन होनेसे विशेष कुशल है || ६ || यह सुनकर निष्कपट बन्धु तथा जीवादि तत्त्वोंका यथार्थ विवेचन करने में चतुर स्वामीने ऐसे अगण्य पुण्यसे प्राप्त होने योग्य मोक्षमार्गका वर्णन करना शुरू किया । : जीवन्धर उन्होंने कहा कि असि मषी आदि छह कर्मों से उत्पन्न हुआ सुख कुशल नहीं है क्योंकि वह अनेक आशारूपी लताओं की उत्पत्तिके लिए कन्दस्वरूप है । किन्तु जो सुख मोक्षसे उत्पन्न होता है, अपनी आत्मासे साध्य है, अन्तरहित है और आत्मस्वरूप है वही कुशल स्वरूप है ||७|| वह उत्कृष्ट आत्मसुख रत्नत्रयकी पूर्णता होनेपर ही प्राप्त हो सकता है और वह रत्नत्रय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र नाम से प्रसिद्ध है ||८|| आप्त, आगम और पदार्थका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है । भव्य लोकके आभूषणस्वरूप ज्ञान और चारित्र सम्यग्दर्शन मूलक ही होते हैं || || जिस प्रकार समस्त अङ्गों में मस्तक और समस्त इन्द्रियों में ३७

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