Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 335
________________ २७८ जीवन्धरचम्पूकाव्य नदीके मध्यमें भुजाओं द्वारा उल्लासित नृत्यलीलाके बहाने तैर ही रही हों। धीरे-धीरे देववन्दियों के समूह द्वारा बार-बार पढ़ी जानेवाली विरुदावलीसे उस चन्द्रोदय पर्वतकी गुफाएँ प्रतिध्वनित हो रही थीं जिससे ऐसा जान पड़ता था कि प्रतिध्वनिके बहाने मानो वह पर्वत स्वयं ही उनकी स्तुति कर रहा हो । वहाँ जाकर चित्रविचित्र रत्नोंसे निर्मित मण्डपके मध्यमें शीघ्रतासे कार्य करनेवाले देवोंके द्वारा लाये हुए पद्मरागमणिनिर्मित सिंहासनको अलंकृत करने लगे। उनका वह सिंहासन ऐसा जान पड़ता था मानो मूर्तिधारी सबका अनुराग ही हो । वहाँ दिशाओंको प्रतिध्वनित करनेवाले नगाड़े बज रहे थे और मनोहर गान गाती हुई किन्नरियाँ सब ओर नृत्य कर रही थीं।।१०।। तदनन्तर यक्षराज, जिनके करकमलोंमें सुवर्णके कलश सुशोभित थे ऐसे देवोंके साथ क्षीरसमुद्रकी ओर चला। उस समय वह आकाशमें फैले हुए सन्ध्याकालीन मेघका भ्रम उत्पन्न कर रहा था और मुकुटकी मणियोंकी कान्तिसे इन्द्रधनुषकी सम्भावना बढ़ा रहा था ॥११॥ ये देव पहले आकर लक्ष्मी, कामधेनु, चिन्तामणिरत्न तथा अन्य चीज़ोंको हरकर ले गये थे उसी आशापाशसे फिर आये हैं इस प्रकार क्षीर समुद्र मानो जोर-जोरसे चिल्ला रहा था ॥१२॥ ___ तदनन्तर धैर्य गुणके द्वारा स्पर्धा करनेवाला चन्द्रोदय गिरि उनके चरणोंके स्पर्शसे कृतकृत्यताको प्राप्त हो गया। मैं भी गम्भीरता तथा यशके द्वारा उनके साथ स्पर्धा करता हूँ अतः उनके समस्त शरीरका स्पर्शकर कृतकृत्यताका अनुभव करता हूँ यह सोचकर ही मानो क्षीरसागर अपनी अत्यन्त चञ्चल तरङ्गरूपी भुजाओंके द्वारा मानो नृत्य कर रहा था और फेनराशि तथा गजेनाके बहाने अट्टहास ही कर रहा था । ऐसे क्षीरसागरके जलसे भरे हुए सुवर्ण-कलशों को धारण करनेवाले उन यक्षराज प्रमुख देवोंने शीघ्र ही आकर उनका अभिषेक-मङ्गल करना शुरू किया। ___ उस समय यक्षराजके हाथमें स्थित सुवर्णकलशकी पंक्तिसे निकलकर जल जीवन्धर कुमारके मस्तकपर पड़ रहा था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो हिमालयके शिखरके अग्रभागपर संध्याकालीन मेघोंके समूहसे झरकर स्वच्छ जलकी सघन वर्पा ही पड़ रही हो ॥ १३ ॥ यद्यपि अभिषेक-मङ्गल समाप्त हो गया था तो भी देवियोंके कटाक्षरूपी जलसे शरीर व्याप्त होनेके कारण जीवन्धर स्वामी ऐसे जान पड़ते थे मानो क्षीरसागरके प्रवाहसे उनका अभिषेक फिर से हो रहा हो ।। १४ ।। तत्पश्चात् दिव्य वस्त्रोंको धारण करनेवाले मणिमय आभूषणोंसे सुशोभित जीवन्धर स्वामी ऐसे जान पड़ते थे मानो इन्द्रधनुष सहित शरद् ऋतुके मेघ ही हां ।। १५ ।। शत्रुओंका दमन करनेमें जीवन्धर स्वामीने यक्षराजके द्वारा दिये हुए कल्प वृक्षके उत्तम फल आदि ग्रहण किये ॥ १६॥ तदनन्तर यक्षराजने क्रम-क्रमसे उन्हें इच्छानुसार रूप बनाने, सुन्दर गान गाने और विष दूर करनेकी शक्तिसे युक्त तीन श्रेष्ठ मन्त्र दिये । उनका उन्होंने बहुत ही सम्मान किया। यक्षराजने उनसे यह भी कहा कि आप एक ही वर्षमें राज्यलक्ष्मीके कटाक्षोंमें प्रवेश करेंगे। यक्षराजके इन वचनोंसे वे बहुत ही संतुष्ट हुए। विनयपूर्वक अनुकूल आचरण करने वाले यक्ष निरन्तर उनकी सेवा करते थे। इस तरह कुछ समय तक रह कर किसी समय उन्होंने अपनी चेष्टाओं द्वारा देशान्तर देखनेकी इच्छा यक्षराजसे प्रकट की। बुद्धिमान् यक्षराजने जीवन्धर स्वामीका अभिप्राय जानकर उन्हें स्पष्ट रूपसे मार्ग समझाया और फिर उस पर्वतकी सीमापर भेज दिया ।। १७ ।। तदनन्तर कुरुवंशकेसरी जीवन्धर कुमार सिंहके समान निर्भय होकर जहाँ-तहाँ विहार करते हुए कहीं भेड़िया और मृगोंकी उस निवास-भूमिको देखते थे जो कि अत्यन्त विस्तृत वृक्षोंके

Loading...

Page Navigation
1 ... 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406