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जीवन्धरचम्पूकाव्य मुखरूपी कमलमें देदीप्यमान रहती है वह जिनवाणी-सरस्वती देवी जयवन्त रहे ॥७॥ जो निरतिचार सम्यक्चारित्र रूपी मणियोंसे सहित है (पक्षमें छिद्र रहित गोलाकार उत्तम मणियोंसे युक्त है) और दया दाक्षिण्य आदि अनन्त गुणोंसे गुम्फित है (पक्षमें अनेक धागोंसे गुंथी हुई है) उस पूर्वाचार्योंकी परम्पराको मैं एक अपूर्व माला मानता हूँ ॥८॥ गद्यावली और पद्यपरम्परा ये दोनों पृथक् पृथक् भी बहुत भारी आनन्द उत्पन्न करती हैं फिर जहाँ दोनों मिल जाती हैं वहाँकी तो वात ही निराली हो जाती है वहाँ वे दोनों शैशव और जवानीके वीच विचरनेवाली कान्ताके समान बहुत अधिक हर्प उत्पन्न करने लगती हैं ।।६॥ सुधर्माचार्य गणधरने जो कथा महाराज श्रेणिकके लिए कही थी उसी कथाको कहनेका हम प्रयत्न करते हैं ।।१०।। महाकवि हरिचन्द्र कहते हैं कि मेरी वाणी चिरकाल बाद कृतकृत्य हो सकी क्योंकि उसने भाव जिनेन्द्र श्रीजीवन्धर स्वामीको स्वयं ही वरण किया है-उन्हें अपना प्रतिपाद्य विषय बनाया है ॥११।। यद्यपि मेरी वाणी अत्यन्त मलिन है तथापि वह पापको नष्ट करनेवाले जीवन्धर स्वामीके चरित्रको पाकर निश्चित ही धीर वीर मनुष्योंको उस तरह सन्तुष्ट करेगी जिस तरहकी काले काजलकी कान्ति किसी विम्बोष्ठी स्त्रीके नयनकमलकी संगति पाकर सन्तुष्ट करने लगती है ॥१२॥
अथानन्तर इस मध्य लोकमें वह जम्बूद्वीप है जो कि लवणसमुद्रकी चञ्चल तरङ्गों रूपी हस्त-कमलोंके द्वारा फेंके हुए मोतियों और मूंगाओंकी पंक्तिमें सुशोभित तटोंसे अलंकृत है, समस्त द्वीपोंके मध्यमें स्थित रहने पर भी जो अपनी शोभाकी बहुलतासे ऐसा जान पड़ता है मानो उन सब द्वीपोंके ऊपर ही विद्यमान है, आकाशतलको चुम्बित करनेवाले जम्बू वृक्षके बहाने जो ऐसा जान पड़ता है मानो मस्तक ऊपर उठा कर अपनी महिमाके द्वारा तिरस्कृत हुए स्वर्गलोकको प्रत्येक क्षण देख ही रहा है, अपार संसार रूपी अन्धकारसे अन्धे हुए जीवलोकको चारो पुरुषार्थोंका प्रकाश देनेके लिए हो मानो जो दो सूर्य और दो चन्द्रमाओंके व्याजसे चार दीपक धारण कर रहा है, जो पृथिवी रूपी महिलाके मूर्तिधारी सौन्दर्यके समान जान पड़ता है। लक्ष्मीरूपी नर्तकीके नृत्यकी रङ्गभूमि-सा प्रतिभासित होता है, स्वर्गलोकके प्रतिबिम्बके समान शोभा देता है और जो समस्त देवोंके नेत्र रूपी मछलियोंके आधार-कूप सा विदित होता है । ऐसे जम्बूद्वीपमें एक हेमाङ्गद नामका अनुपम देश है । वह देश भरत क्षेत्रके आभूषण समान जान पड़ता है। उस देशमें कमलवनोंकी मकरन्दमें लुभाये हुए भ्रमरोंके समूह इधर-उधर मँडराते रहते हैं उनसे ऐसा जान पड़ता है मानो वह देश समस्त मनुष्योंके नेत्रोंको बाँधनेके लिए लोहेकी सांकल ही धारण कर रहा हो। वह देश पक जाने के कारण पीली पीली दिखने वाली धानकी वालोंके समूहसे पीला पीला हो रहा है और उससे ऐसा जान पड़ता है मानो पक्षियोंके समूह आकर खेती नष्ट न कर दें इस भयसे किसानोंने एक पीला कपड़ा ही खेतों पर ढाँक रक्खा है । वह देश जहाँ तहाँ लगाई हुई धान्यकी उन गगनचुम्बी राशियोंमें सुशोभित है जो कि अपनी ऊँचाईके कारण ऐसी जान पड़ती है कि इस भूमिने जबसे हमारा बीज बोया गया तभीसे हम लोगोंको भारी संताप पहुँचाया है इस वैरके कारण ही मानो उसका मार्ग रोकनेके लिए ऊपर बढ़ी जा रही है अथवा ऐसी जान पड़ती है मानो उस देशका सौन्दर्य देखनेके लिए कुलाचल ही आ पहुँचे हों । अथवा ऐसी प्रतिभासित होती है कि उदयाचल और अस्ताचलके बीचमें निरन्तर गमन करनेसे थके हुए सूर्यके विश्राम के लिए विधाताने विश्राम गिरि ही बना दिये हैं । वह देश बाग-बगीचोंके उन अनेक वृक्षोंके समूहसे सुशोभित है जो कि बहुत दूर तक बढ़े हुए शाखा-समूहमें सुशोभित नई कोपलोंके के बहाने हाथ उठाकर अनेक प्रकारके पक्षियोंकी बोलीके द्वारा ऐसे जान पड़ते हैं मानो जीतने के लिए कल्पवृक्षोंको ही बुला रहे हों । वे वृक्षोंके समूह मेघमण्डल तक जा पहुँचे थे और