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जीवन्धरचम्पूकाव्य
देवीके वचनों में विश्वास होनेसे और दूसरा कुछ उपाय न होनेसे वह गन्धोकट सेठको अपना पुत्र सौंपनेके लिए जिस किसी तरह तैयार हो गई । यद्यपि वह पुत्र स्वभावसे ही विशाल तेजका समुद्र-सागर था तो भी रानी विजयाने उसे पिताकी मुद्रासे समुद्र-मुद्रासहित कर आगे रख दिया और स्वयं देवी के साथ सहसा अन्तर्हित हो गई।
श्मशानके वनके बीचमें बालसूर्यके समान प्रकाशमान उस पुत्रको अपने विस्तृत दोनों नेत्रोंसे देखता हुआ वैश्यपति गन्धोत्कट ठीक उसी तरह सन्तुष्ट नहीं हो रहा था कि जिस तरह प्यासा मनुष्य सरोवरके जलको और चातक मेघोंसे झरते हुए जलकणांको देखकर सन्तुष्ट नहीं होता है ।। ६२॥
जिस प्रकार ईन्धन खोजनेवाले मनुष्यको कहीं महानिधि मिल जाती है तो उसे वह लपककर उठा लेता है इसी प्रकार गन्धोत्कटने राजपुत्रको पा तत्काल ही उठा लिया। आनन्दके कारण उसके शरीरमें रोमाञ्च निकल आये थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो हृदयरूपी क्यारीमें उत्पन्न हुई मनोहर हर्षरूपी लताकी बोड़ियोंको ही धारण कर रहा हो। ज्योंही उसने पुत्रको उठाया त्योंही प्रोतिकी पराकाष्ठाको प्राप्त हो गया। पुत्रके शरीरके स्पर्शजन्य सुखकी परवशतासे वह ऐसा हो रहा था मानो आनन्दरूपी समुद्रमें निमग्न ही हो गया हो, अथवा उसके हृदयके भीतर चन्दन रसका लेप ही लगाया गया हो, अथवा उसका शरीर हिमकणोंकी वापिकामें ही निमग्न हो रहा हो अथवा वह मोहसे आक्रान्त हो गया हो, निद्रित हो रहा हो, नशामें मत्त हो रहा हो, उसकी इन्द्रियाँ मोहके वशीभूत हो रही हों, अथवा उसकी चेतना शक्तिनिमीलित हो रही हो । इस तरह वह अनन्द की परमकाष्टाको प्राप्त हो रहा था। पुत्रको उठाते समय उसने 'जीव'-जीवित रहो-यह आशीर्वादात्मक शब्द सुने थे इसलिए उसने कामदेवके समान सुन्दर रूपको धारण करने वाले उस भाग्यशाली पुत्रको 'जीव' इसी नामसे अलंकृत किया था।
तदनन्तर गन्धोत्कटने अपने घर जाकर क्रुद्ध होते हुए की तरह स्त्रीसे कहा-अरी पगली ! तूने परीक्षा किये बिना ही जीवित पुत्रको मरा हुआ क्यों कह दिया ? ॥ ६३ ।। अथवा जिनका चित्त स्वभावसे ही संभ्रान्त रहता है ऐसी स्त्रियां यदि जीवित कुमारको मरा हुआ समझने लगे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ॥ ६४ ॥
इत्यादि वचनरूपी बाणोंके साथ अपने पतिके द्वारा समर्पित नयनानन्दकारी पुत्रको दोनों हाथ बढ़ाकर ले लिया और उसके शरीरको सुन्दरताके देखनेसे उत्पन्न दृष्टिदोषका बचाव करनेके लिए ही मानो उसे अत्यन्त चञ्चल कटाक्षरूपी नील कमलाकी मालाकी काली कान्तिसे व्याप्त कर दिया।
वे दोनों ही वैश्यदम्पती उस पुत्रके रूप और सौन्दर्यकी लक्ष्मीरूपी स्वभावमधुर अमृतकी धाराको नेत्ररूपी कटोरोंसे पीकर तथा उसके फूलके समान कोमल शरीरका स्पर्शकर इतर जनदुर्लभ तृप्तिको प्राप्त हो आश्चर्य-सागरमें निमग्न हो गये थे ॥ ६५ ॥ देवीने प्रथम तो विजया रानीको उसके भाईके घर भेजने की सलाह दी थी परन्तु दुःखके समय उसने वहाँ जाना पसन्द नहीं किया। तदनन्तर उसने आश्रमकी लताओंमें देवीके शरीरको सहशता देखनेके लिए ही मानो उसे दण्डक बनके तपोवनमें भेज दिया ॥६६॥
इसके बाद अभिलषित कार्यको सिद्धिसे सन्तुष्ट हुई देवी किसी कार्यके बहाने अन्तर्हित हो गई। और रानी निरन्तर विकसित रहने वाले जिनेन्द्रदेवके चरण-कमलोंसे सुशोभित अपने मन रूपी मानससरोवरमें पुत्ररूपी राजहंसको क्रीड़ा कराने लगी।