Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 319
________________ २६२ जीवन्धरचम्पूकाव्य वह कहीं सामने आई हुई गङ्गा, सिन्धु आदि प्रमुख नदियोंको अपनी तरङ्गरूपी भुजाओंके द्वारा आलिङ्गन कर रहा था। उस समुद्रके किनारे जो जल-मनुष्य थे उनके हृदय किनारेपर उठी हुई वायुसे कम्पित ताड़वृक्षोंके शब्दसे भयभीत हो रहे थे और इसी कारण वे शेवालके समूह तोड़कर अपने ऊपर मेल रहे थे। कहीं बड़े-बड़े हाथी बड़े-बड़े मच्छोंके मुखरूपी बिलको पहाड़की गुफाएँ समझ भ्रान्तिवश उनके भीतर घुस रहे थे और जब उनके भीतर जलती हुई जठराग्निकी ज्वालाओंको नहीं सह सके तब फिर बाहर निकल आये ॥३॥ वैश्यपति श्रीदत्तने उस समुद्रको अपने नेत्रोंसे पिया अर्थात् देखा परन्तु उसके खारेपनको सहन नहीं कर सका इसलिए ही मानो वह आश्चर्य रूपी दूसरे समुद्रको प्राप्त हो गया था ॥४॥ तदनन्तर जहाजमें बैठकर वह दूसरे द्वीपमें गया और वहाँ अनेक उपायोंसे उसने बहुत धनका उपार्जन किया। तत्पश्चात् सम्पत्तिके द्वारा आकाशरूपी समुद्र में चलनेकी योग्यता रखनेवाले ऐरावत हाथीके कन्धेपर बैठे हुए इन्द्रका अनुकरण करता हुआ वह जहाजका व्यापारी किसी बड़े जहाजपर सवार हो समुद्रके इस ओर आया । समुद्रका किनारा कुछ ही दूर था कि बहुत भारी जोरकी वर्षा उसके जहाजपर आ पड़ी। उस समय मेघोंकी घनघोर गर्जनासे समस्त दिशाओंकी दीवालें फटी जा रही थीं और बड़ी-बड़ी बूंदोंके समूह नीचे गिर रहे थे । उनसे ऐसा जान पड़ता था कि अपने प्रतिद्वन्द्वी समुद्रमें जो जहाँ-तहाँ मोतियोंके समूह विखरे पड़े थे वह उन्हें सहन नहीं कर सका था। सच है प्राणियोंको विपत्ति कब आने वाली है यह कोई नहीं देख आया ॥५॥ उस जहाजपर जो और दूसरे लोग बैठे थे उनके शरीर पहलेसे ही शोकरूपी समुद्रमें निमग्न हो रहे थे इसलिए. भले-बुरेको जाननेवाले श्रीदत्तने तत्त्वज्ञानरूपी जहाज देकर उन सबको तारा था ॥ ६॥ धीरे-धीरे जहाज नष्ट हो गया और भाग्यद्वारा ही मानो समीपमें भेजा हुआ एक मस्तूल का टुकड़ा श्रीदत्तको दिखाई दिया। वह उसपर चढ़कर अपने-आपको जीवित समझने लगा। यद्यपि उसका समस्त धन नष्ट हो गया था तो भी प्राणोंको सुरक्षित पाकर संतुष्ट हो रहा था । चलता-चलता वह किसी अपरचित द्वीपमें पहुंचा। वहाँ अचानक कोई विद्याधर उसके सामने आया । चपलतावश श्रीदत्तने उसे अपना समस्त वृत्तान्त सुना दिया। श्रीदत्तका वृत्तान्त सुनकर वह विद्याधर उसे उसीके बहाने विजयाध पर्वतपर ले गया । वह विजया ऐसा जान पड़ता था मानो पृथिवीरूपी स्त्रीका हास्य ही था और आकाशरूपी कसौटीके पत्थरोंसे युक्त होनेके कारण ऊँचे उठे हुए शिखरोंके द्वारा मानो सुमेरु पर्वतकी हँसी ही कर रहा था ॥ ७ ॥ उस विजयार्धके शिखरोंपर लगी हुई नीलमणियोंकी कान्तिकी परम्परासे सिंहके बच्चे बहुत बार छकाये गये थे इसलिए वे सचमुचकी गुफामें भी प्रवेश करनेके लिए शङ्का खाते थे-हिचकिचाते थे । यही कारण था कि वे अपनी गर्जनाकी प्रतिध्वनिके द्वारा निश्चय करके ही गुफाओंमें प्रवेश करते थे ॥८॥ उस विजयार्धकी मध्यमेखलामें प्रतिबिम्बित अपने आपको देखकर जंगली हाथी पास आकर दाँतोंसे उसपर वार करते थे सो ठीक ही है क्योंकि मदयुक्त (पक्षमें अभिमानी) जीवोंको विवेक कैसे हो सकता है ? ॥६॥ उस पर्वतपर सिंह, मेघमाला को गर्जनाके भ्रमसे हाथी समझ बैठते थे इसी कारण वे वेगसे उछलकर उनके पास जाते थे और क्रोधवश नखोंके प्रहारसे उन्हें विदीर्णकर छोड़ देते थे ।। १० ॥ वह पर्वत, कहीं तो विद्याधरियोंके समूह, जिन्हें रेशमी वस्त्र समझकर ओढ़ लेती थीं ऐसे सफ़ेद मेघोंसे घिरा हुआ था। कहीं हरी मणियोंके तटसे निकली हुई हरी-हरी प्रभा सूर्य-बिम्बके

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