Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 328
________________ २७१ चतुर्थ लम्भ हे तन्धि ! आगे दृष्टि तो फैलाओ जिससे यह वन, स्थलमें विद्यमान नीलकमलोंको प्राप्त कर सके ! जरा मन्द मुसकान भी छोड़ो जिससे प्रत्येक दिशामें भ्रमरोंको आनन्दित करनेवाले फूलोंके समूह झर पड़े और जरा अपनी वाणी भी प्रकट करो जिससे कोयल शीघ्र ही चुप हो जावे ॥७॥ विकसित नवीन पल्लव ही जिसके उत्तम ओठ हैं, खिले हुए पुष्प हो जिसकी मन्द मुसकान है और भ्रमरोंसे युक्त गुच्छे ही जिसके चू चुकों से युक्त स्तन हैं ऐसी वासन्ती लताको कोई पुरुष इतने अनुरागसे देख रहा था जैसे कि किसी अन्य स्त्रीको ही देख रहा हो । पुरुषकी यह चेष्टा देख उसकी प्रिया उसपर कुपित हो उठी । जब पुरुपको इसका प्रत्यय हुआ तब वह प्रियाको शान्त करनेकी इच्छा करता हुआ इस प्रकार कहने लगा हे मृगनयनि ! जिसमें हाथके समान नूतन पल्लव लहलहा रहे हैं, जो मदोन्मत्त भ्रमरोंसे सेवित हैं, जिसके फूलके दो गुच्छे अत्यन्त कठोर हैं और जिसकी दो बड़ी शाखाएँ शिरीपके फूलके समान अत्यन्त सुकुमार हैं ऐसी तुमही चलती-फिरती लता हो और तुम ही कामकी लक्ष्मी हो ॥६।। वृक्षकी ऊपरकी टहनीमें लगे फूलके लिए जिसने बायें हाथसे वृक्षकी सुगन्धित शाखा पकड़ रखी थी और दाहिने हाथ से जो अपनी करधनी सँभाले हुई थी ऐसी निर्मल सुवर्णके समान गौरवर्ण वाली स्त्रीका जब नीवी-बन्धन खुल गया तब उसने शीघ्र ही किस मनुष्यके नेत्रोंका अनन्त सुख उत्पन्न नहीं किया था ? ॥७॥ कोई एक स्त्री अपने पतिके सामने फूल तोड़नेके लिए भुजा ऊपरकी ओर उठाये हुए थी परन्तु उस भुजाके मूलमें पतिके द्वारा किया हुआ नखच्छदका चिह्न था जिसे वह दूसरे हाथसे वस्त्रके द्वारा बड़ी सुन्दरताके साथ छिपा रही थी।८।। वनके भीतर कोई स्त्री अपने हस्तकमलकी कान्तिसे मिश्रित पुराने पत्तोंके समूहको नया पल्लव समझ तोड़नेके लिए उद्यत हुई थी किन्तु उसका कोमल स्पर्श न देख उसने उसे छोड़ दिया पर इस बातका आश्चर्य रहा कि वह अपने ही नखकी कान्तिको फूलोंका गुच्छा समझकर खींचती रही ॥६।चूंकि तुम्हारा शरीर सुवर्णके समान पीला है अतः उसपर यह चम्पेकी माला खिलती नहीं है ऐसा कहकर स्तन कलशके समीपमें हाथ चलाते हुए किसी पुरुपने अपनी स्त्रीके वक्षःस्थलपर मौलिश्रीकी माला बाँध दी ॥१०॥ इस वनमें चकोरलोचनाओंके वक्षःस्थलोंपर उनके पतियोंने जो फूलोंकी मालाएँ पहिना रक्खी थीं वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो भीतर प्रवेश करने वाले कामदेवके स्वागतार्थ पुष्पगुम्फित तोरण मालाएँ ही बाँधी गई हो ॥११॥ __इस प्रकार सब नागरिक लोग जब वन-क्रीड़ामें तत्पर थे तब जीवन्धर स्वामीकी दृष्टि किसी कुत्ते पर पड़ी । वहाँ यज्ञ प्रारम्भ करनेवाले ब्राह्मणोंने साकल्य छू देनेसे कुपित होकर उसे मारा था । वह बुरी तरह कराह रहा था। उसका वह कराहना ऐसा जान पड़ता था मानो दुःखरूपी समुद्र ही तटका उल्लंघनकर गर्जना कर रहा था अथवा प्राणरूपी राजाके प्रस्थानको सूचित करनेवाली भेरीका ही भांकार शब्द हो रहा था। उसके मुखसे खूनकी धारा बह रही थी जो ऐसी जान पड़ती थी मानो भीतर जलती हुई दुःखाग्निकी ज्वाला ही हो। अपार दयाके सागर जीवन्धर स्वामी बहुत प्रयत्न करनेपर भी जब उस कुत्तेको जीवित रखनेके लिए समर्थ नहीं हो सके तब उन्होंने उसे परलोककी प्राप्ति करानेमें समर्थ पञ्च नमस्कार मन्त्रका उपदेश दिया । । ___वह कुत्ता यद्यपि उस मन्त्रका कानसे ही स्पर्श कर सका था, मनसे नहीं तो भी उसका कुछ क्लेश कम हो गया और मन्त्र सुनते-सुनते ही उसने प्राण छोड़ दिये ॥१२॥ इसी मध्यम लोक में एक चन्द्रोदय नामका पर्वत है । वहाँ निर्मल उपपाद शय्यापर सुन्दर वैक्रियिक शरीर लेकर वह कुत्ता सुदर्शन नामका यक्ष उत्पन्न हुआ । जन्मसे ही उसके शरीर पर मालाएँ पड़ी थीं, वह उत्तम वस्त्रोंको धारण करनेवाला था और नव यौवनकी लक्ष्मीसे उसका शरीर समुद्भासित था ।।१३।। उस यक्षका निर्मल मुखकमल, पूर्णिमाके चन्द्रमाको भी दास बना रहा था, टिमकार

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