Book Title: Jivandhar Champu
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 306
________________ प्रथम लम्भ उन मन्त्रियोंमें एक धर्मदत्त नामका ऐसा मन्त्री था जिसका चिन राजनीतिसे सदा सुशोभित रहता था । उसने स्वामि-भक्ति से प्रेरित होकर अपने जीवनको नष्ट करनेके लिए छुरीके समान निम्नांकित वचन काष्ठांगारसे कहे ॥६६॥ चूंकि राजाओंके रहते ही जीवन सुरक्षित रहता है अतः राजा ही समस्त प्रजाओंके प्राण हैं । और इसीलिए राजाओंके साथ द्रोह करनेका विचार मानो समस्त प्रजाके साथ द्रोह करना है ।।७।। चूंकि राजद्रोही सबके साथ द्रोह करनेवाला है अतः वह समस्त पापोंका ठिकाना है ।।७।। राजाके साथ विरोध करना समस्त वंशक विनाश का कारण है । देखो, राजा ( पक्षमें चन्द्रमा ) के साथ विरोध करनेके कारण ही अन्धकार सब जगहसे हटाया जाता है |ना जिस प्रकार वृक्ष, छायामें आये हुए मनुष्योंकी रक्षा करनेके लिए स्वयं सूर्यके संतापको सहता है उसी प्रकार राजा निरन्तर जनताके आनन्दके लिए स्वयं रक्षाजन्यक्लेशको सहता है ।।७३॥ इस तरह राजद्रोह, गुरुद्रोह आदिमें जिसका चित्त लग रहा है ऐसे काष्टांगारने नीतिज्ञोम श्रेष्ठ सचिवोत्तमके वचन ठीक उस तरह पसन्द नहीं किये जिस तरह कि पित्तज्वरसे पीड़ित मनुष्य अत्यन्त मधुर दूधको पसन्द नहीं करता है । पसन्द करना तो दूर रहा उल्टा विकारजनित रोप उत्पन्न किया। काष्ठांगारका एक मथन नामका साला था, उसने उस कृतघ्नके वचनोंको बहुत ही हितकारी माना था सो ठीक ही है क्योंकि कौवा नीमके फलको ही चखने योग्य मानता है ॥४॥ तदनन्तर राजाकी हत्या करनेका इच्छुक कृतघ्न काष्ठांगारने राजभवनपर घेरा डालनेके लिए एक बड़ी सेनाको आदेश दिया । वह सेना ऐसे हाथियोंसे सहित थी जो गण्डस्थलसे भरती हुई मदधाराओंके बहाने बड़ी-बड़ी नदियोंको उगलने वाले पर्वतोंके समान जान पड़ते थे। साथ ही वह सेना, सेनारूपी सागरकी तरङ्गोंके समान उछलने वाले घोड़ों, वेगसे सूर्यके रथ को जीतनेवाले रथों और भुजारूपी चन्दन-वृक्षके कोटरोंसे निकलनेवाली सर्पिणियोंके समान तलवारोंको धारण करनेवाले पैदल सैनिकोंसे सुशोभित थी। ___उस समय पृथिवीको कपाता, पर्वतोंको चलाता और आकाशको खण्डित करता हुआ दुन्दुभिका शब्द वृद्धिंगत हो रहा था ॥७५।। तदनन्तर जो कूदते-फाँदते हुए योद्धाओंकी भुजाओंके ताइनसे समुत्पन्न चञ्चल शब्दोंसे अत्यन्त कठोर था, मदोन्मत्त हाथियोंके कण्ठोमें बजनेवाले घण्टाओंके शब्दसे भयंकर था, सिंह की गर्जनाको तिरस्कृत करनेमें निपुण घोड़ोंकी भारी हिनहिनाहट तथा पक्की जमीनपर पड़ने वाली अत्यन्त तीक्ष्ण टापोंकी कठोर ध्वनिसे भरा हुआ था, पैदल सैनिकोंके पैरोंके आघातसे समुत्पन्न पृथिवीके भारो शब्दोंसे भयंकर था, निरन्तर बहते हुए मदके कारण मन्द वेग वाले रथोंके पहियोंकी चीत्कारमें मिला हुआ था, धनुर्धारियोंके हाथोंसे की जानेवाली धनुषकी टंकारसे कर्कश था, और जिसने कुलाचलोंकी कन्दराओंको प्रतिध्वनिसे गुंजा दिया था ऐसे कोलाहलसे भरी हुई काष्ठांगारकी सेनाने राजमहलको चारों ओरसे घेर लिया। ___ घोर वीर राजा सत्यन्धरने जब द्वारपालके मुखसे अपने भवनपर घेरा डालनेका कर्णकठोर समाचार सुना तो वह क्रोधमें उन्मत्त हो उठा, सब शोक भल गया और सिंहासनसे उसी क्षण उठकर खड़ा हो गया ॥७॥ उसी समय रानी मूच्छित होकर पृथिवीपर गिर पड़ी मानों युद्धके लिए प्रस्थान करने वाले राजाके पीछे पीछे जाते हुए प्राणोंको खोजनेके लिये ही पृथिवीपर जा पड़ी थी । इस तरह गर्भके भारी भारसे पीड़ित रानीको पृथिवीपर पड़ी देख राजा सत्यन्धर लौट आया। ३२

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