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प्रथम लम्भ
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गण्डस्थल पर रक्खा हुआ मानो कामदेवका वज्रमय खेट हो । वह चन्द्रमा पश्चिमकी और ढलकर अस्ताचलकी शिखरपर आरूढ़ हो गया था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो वीरजिनेन्द्रकी क्रोधाग्निसे जिसका शरीर जल गया है ऐसे कामदेवको कलङ्कके बहाने अपनी गोद में रखकर उसे जीवित करनेके इच्छासे संजीवन औषध ही खोज रहा हो और आकाश रूपी वनमें खोजने के बाद अब उसी उद्देश्यसे अस्ताचलकी शिखर पर आड़ हुआ हो । उससमय तारागण भी विरल विरल रह गये और संध्याके कारण लालिमाको प्राप्त हुए अन्धकार रूपी कुङ्कुमके द्रवसे चिह्नित आकाशरूपी पलंगपर रात्रि तथा चन्द्रमा रूपी नायक-नायिकाके रतिसंमर्दके कारण बिखरे फूलों के समूहके समान म्लानताको प्राप्त हो गये थे । रात्रिके समय चमकने वाली औषधियाँ अपने तेजसे रहित हो गई थी सो ऐसी जान पड़ती थीं मानो अपने पति चन्द्रमाको श्रीहीन देखकर ही उन्होंने अपना तेज छोड़ दिया हो । चन्द्रमा लक्ष्मीसे रहित हो गया था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो इस कुमुदों के बन्धुने - हिमायतीने हमारी वसति स्वरूप कमलोंके समूहको विध्वस्त किया है - जति पहुँचाई है इस क्रोध से ही मानो लक्ष्मी चन्द्रमासे निकलकर अन्यत्र चली गई थी । कुमुद्विनियों में से काले-काले भ्रमरोंके समूह निकल रहे थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो कुमुदिनी रूपी स्त्रियाँ उन निकलते हुए भ्रमरी के वहाने अपने पतिकी विरहानल सम्बन्धी धूमकी रेखाको ही प्रकट कर रही हो। इसके सिवाय उस समय प्रातःकालकी ठण्डी ठण्डी हवा चल रही थी जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो स्त्री पुरुषों के संभोगके समय जो पसीना आ रहा था उससे उनकी कामाग्नि वुझनेवाली थी सो वह प्रातः कालकी हवा खिले हुए कमलोंकी परागके कणोंके द्वारा उक्त कामाग्निको मानो पुनः प्रज्वलित ही कर रही हो ।
ऐसे समय में सोती हुई विजया रानीने अपने शुभ और अशुभको सूचित करनेवाला स्वप्न देखा सो ठीक ही है क्योंकि उसे जिस भवितव्यकी स्वप्न में भी खवर नहीं थी वह स्वप्न के द्वारा सूचित हो गया || ३६ || कुछ ही समय बाद बन्धूकके फूलके समान कान्ति वाली सन्ध्या—प्रातःकालकी लाली सुशोभित होने लगी और वह ऐसी जान पड़ने लगी मानो आकाश रूपी समुद्रमें प्रकट हुए मूँगाओंके बनकी पंक्ति ही हो ॥ ४० ॥ तदनन्तर सूर्यका उदय हुआ । वह सूर्य ऐसा जान पड़ता था मानो पूर्व दिशा रूपी तरुणी के घरका रत्नमय दीपक ही हो, अथवा आकाश रूपी लक्ष्मीका उत्तम मणिमय गेंड ही हो, अथवा सन्ध्या रूपी स्त्रीके मुखपर लगा हुआ केशरका टीका ही हो ॥ ४१ ॥
उस समय वह सूर्य किसी ऐसे बड़े दीपकके समान जान पड़ता था. जो कि पूर्व समुद्र रूपी तेलके समीप विराजमान था और पंखियों के गिरनेके भय से जिसके ऊपर आकाश रूपी मरकतमणिका पात्र ढँक दिया गया था । उस समय सूर्यका मण्डल अपने चारो ओर फैलनेवाली जिन लाल-लाल प्रभाओंकी पंक्तिसे अनुरञ्जित हो रहा था वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो पूर्व समुद्रमें जो मूँगाओंके समूह हैं उन्हींको कान्ति बाहर फैल रही थी. अथवा आकाश रूपी समुद्रको सुखाने के लिए पूर्व समुद्र से निकालकर ऊपरकी ओर गई हुई मानो बडवानलकी ज्वालाएँ ही थीं। इस प्रकार अनुरक्त मण्डलको धारण करनेवाला सूर्य उदयाचलकी शिखरपर आखड हुआ ही था कि इतनेमें
राजभवन के भीतर कोयलके साथ स्पर्धा करनेवाले मनोहर कण्ठोंके धारक बन्दीजन आकर विजयारानीको जगानेके लिए गम्भीर ध्वनिसे निम्न प्रकार मङ्गल पाठ पढ़ने लगे || ४२ ॥ हे देवि ! हे राजाके मन रूपी मानसरोवर की हंसी ! यहाँ यह प्रातः काल कुछ कुछ खिले हुए कमल रूपी हाथोंके द्वारा तुम्हें हाथ जोड़ रहा है और भृङ्गावलीके मधुर शब्दोंके द्वारा प्रवोध गीत गा रहा है ॥ ४३ ॥ हे देवि ! तुम्हारे मुख कमलके द्वारा जिसकी श्री जीत ली गई है ऐसा यह