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# जिनवाणी संग्रह *
२१ कल्याण मन्दिर (भाषा)
दोहा - परमज्योति परमात्मा, परमज्ञान परवीन । बदू परमानन्दमय, घट घट अन्तर लीन | चौपाई |
निर्भय करण परम परधान । भव समुद्र जल तारण यान ॥ शिव मन्दिर अघहरण अनिन्द | बन्दू पाश्वं चरण अरविन्द ॥ १ ॥ कमठ मान भञ्जन बरवोर । गरिमा सागर गुण गम्भीर ॥ सुर गुरु पारि लहै नहिं जासु । मैं अजान गुणु जम्य नासु ॥२॥ प्रभु स्वरूप अति अगम अथाह । क्यों हमसे यह होय निवाह ! ज्यों दिन अन्ध उलूको पोत । कहि न सकें रवि किरण उद्योत ॥३॥ मोह होन जाने मन माहि । तोहि न तुल गुण बरणे जाहि ॥ प्रलय पयोधि करे जल बौन । प्रगटहि रत्न गिने तिहि कौन ॥ ४ ॥ तुम असंख्य निर्मल गुण खान । मैं मतिहीन कहौं निजबान ॥ ज्यों बालक निज बाहि पसार । सागर परिमित कहे विचार ||५॥ जो योगोन्द्र करहिं तप खेद । तेउ न जानहिं तुम गुण भेद ॥ भक्ति भाव मुझ मन अभिलाष । ज्यों पक्षी बोलेँ निज भाष ॥६॥ तुम यश महिमा अगम अपार । नाम एक त्रिभुवन आधार ॥ आवै पवन पद्म सर होय । ग्रीष्म तपन निर्वारे सोय ॥७॥ तुम आवत भविजन मन मांहिं । कर्म निवन्ध शिथिल हो जाहिं ॥ ज्यों चन्दन तरु बोलें मोर । डरहिं भुजङ्ग च चहुं ओर ||८|| तुम निरखत जन दोन दयाल । सङ्कट तें छूटे तत्काल ॥ ज्यों
पशु घर लेहिं निशि चोर। ते तज भागहि देखत भोर ॥६॥