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विनती 1
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को प्रभु दीना ॥ ११ ॥ नमि प्रभुके पद पद्म नवत नशे अघ भारी । नेमि प्रभू तज राज जाय वरी शिव नारी ॥ १२ ॥ पारसवर्ण सरूप कहु भविक्षण में कीने। वीर वीर विधि नाश ज्ञानादिक गुण लीने ॥ १३ ॥ चार बीस जिनदेव गुण अनन्त के धारी । करों विविध पद सेव मैटो व्यथा हमारी ॥ १४ ॥ तुम सम जगमें कौन ताका शरण गहीजे । यासे मांगो नाथ निज पद सेवा दीजे ||१५|| दोहा - नाथूराम जिन भक्त का, दूर करो भव वास ।
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जब तक शिव अवसर नहीं, करो वरण का दास ॥ (६) विनती भूदरदास कृत ।
वे गुरु मेरे उर बसो तारण तरण जहाज । वे गुरु मेरे उरवसो || आप तरें पर तार ही ऐसे ऋषिराज । वे गुरु मेरे उर बसो ॥ टेक ॥।
मोह महारिपु जी के, छोड़ो है घरवार । भये दिगम्बर वन बसे, आतम शुद्ध विचार ॥ १ ॥ रोग मदन तन ध्यावही, भोग भुजङ्ग समान । कदली तर संसार है, इम छोड़े सब जान ॥ २ ॥ रत्नत्रय निज उर धरें, वर निरग्रन्थ त्रिकाल | मारो काम खबीस को, स्वामी परम दयाल || ३ || धर्म धरें दशलक्षणी भावन भाव सार । सहें परीषह बीस दो, चारित्र रत्न भण्डार || ४ || ग्रीषम ऋतु रवि तेज से सूखे सरवर नीर | शेल शिखर मुनि तप तर्पे, लाड़ अचल शरीर || ५ || पावस रैनि भयावनी बरसे जलधर धार। तरु तल निवसें साहसी चाले का बयार || ६ || शीत पड़े रवि मद् गले दहे दाहे सब बनराय । ताल तरङ्गिणी तट विषे. ठाड़े ध्यान लगाय ॥ ७ ॥ इस विधि दुर्द्धर तप तर्फे, तीनो काल मंकार । लागे सहज स्वरूप में, तन से ममता टार ॥ ८ ॥