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बाईस परीवह ।
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न डारें । यो तृणस्पर्श परोषह विजयी ते गुरु भव भव शरण हमारे ॥
१८ मल परीषह -- यावज्जीव जल न्हौन तजो तिन नग्न रूप बन थान खड़े हैं। चले पसेव धूपकी बिरियां उड़त धूल सब अङ्ग भरे हैं। मलिन देहको देख मदा मुनि मलिन भाव उर नाहिं करे हैं। यों मल जनित परीषह जोतें सिन्हें पाय हम सीस धरे हैं ।
१८ सत्कार तिरस्कार परीग्रह जे महान विद्यानिधिविजयी विर तपसी गुण अतुल भरे हैं । तिनकी बिनय वचन सों अथवा उठ प्रणाम जन नाहिं करे हैं ॥ तौ मुनि तहां खेद नहिं मानें उर मलोनता भाव हरे हैं। ऐसे परम साधुके अहनिशि हाथ जोड़ हम पांय परे हैं |
२० प्रज्ञा परीषह - तर्क छन्द व्याकरण कलानिधि आगम अलङ्कार पढ़ जाने । जाकी सुमति देख परवादी विलखे होंय लाज उर आनें ॥ जैसे सुनत नाद केहरिको वन गयन्द भाजत भय मानें। ऐसी महाबुद्धिके भाजन ये मुनीश मद रञ्च न ठाने ॥
२१ अज्ञान परिषह - सावधान वर्ते निशि वासर संयम शूर परम वैरागी । पालत गुप्ति गये दीरघ दिन सकल सङ्ग ममतापर त्यागो || अवधिज्ञान अथवा मनपर्य्यय केवल ऋद्धि न आजहूं जागी !
॥
यो विकल्प नहिं करें तपोधन सो अज्ञान विजयी बड़ भागी ॥
२२ अदर्शन परीषद - मैं चिरकाल घोर तप कीनो अजहुं ऋद्धि अतिशय नहिं जागे । तप बल सिद्ध होय सब सुनियत सो कछु बात सी लागे || यो कदापि चितमें नहिं चिन्तत समकित शुद्ध शान्तिरस पागे । सोई साधु अदर्शन विजयीताके दर्शनसे अघ भागे ।
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