Book Title: Jinvani Sangraha
Author(s): Satish Jain, Kasturchand Chavda
Publisher: Jinvani Pracharak Karyalaya
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जिनवाणी संग्रह।
शुभगंधसम्हारा, घसन निहारा, तुमतर धारा, शान करें। तीर्थकरकी धुनि, गणधरने सुनि अंग रचे चुनि, ज्ञानमई । सो जिनवरवानी, शिवसुखदानो, त्रिभुवनमानी, पूज्य भई ॥
___ओं ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्ये वस्त्र निवं पामि ॥८॥ जलचंदन अच्छत, फूल चरू चत, दीप धूप अति, फल लाये । पूजाको ठानत, जो तुम जानत, सो नर द्यानत"सुख पावै ॥तीय।। ओं ह्रीं श्रोजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै अयं निर्व पामि ॥१०॥
अप जयमाला। सोरठा--ओङ्कार धुनिसार, द्वादशांग वाणी विमल ।
नमों भक्ति उर धार, शान करै जड़ता हरे॥ वेसरी छन्द --पहला आचारांग वखानो। पद अष्टादश सहस प्रमानो। दूजा सूत्रकृतं अभिलाष । पद छत्तीस सहस गुरु मापं ॥ १॥ तीजा ठाना अग सुजान। सहल बियालिस पद. सरधानं ॥ चौथो समवायांग निहार। चौसठ सहस लाख इकधार॥ २ ॥ पंचम व्याख्याप्रगपति दरशं। दोय लाख आट्टाइस सहस छट्ठा ज्ञातृकथा बिसतार। पांचलाख छप्पन हजार ॥३॥ सतम उपासकाध्ययन ग। सत्तर सहस ग्यारलख भग। अष्टम अतकृत दस ईस। सहस अठाइस लाख तेईस ॥४॥ नवम अनुत्तरदस सुविशाल । लाख वानवै सहस चवाल। दशम प्रश्नव्याकरण विचार। लाख तिरानव सोल हजार ॥५॥ ग्यारम सूत्रविपाक सु भाखं। एक कोड़ चौरासी लाख। चार कोड़ि अरु पंद्रह लाख। दो हजार सब पद गुरुशा ॥ ६ ॥ द्वादश दृष्टिवाद पनभेद । इकलो आठ कोड़ि पन वेदं ॥ अड़सठ

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