Book Title: Jinvani Sangraha
Author(s): Satish Jain, Kasturchand Chavda
Publisher: Jinvani Pracharak Karyalaya

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Page 224
________________ रवि प्रत कथा। ४३८ निधि मा मुनिराय। सुनो मध्य तुम चित्त लगाय । जब आषाढ़ सुदि पक्ष विचार। तब को अंतिम रविवार ॥६॥ अनशन अथवा लघु आहार। लषणादिक जो करे परिहार नवफल युत पंचामृत धार। वसु प्रकार पूजो भवहार ॥ ७॥ उत्तम फल इक्यासी जान। नवश्रावक घर दीजे आन ॥ या विधि करो नव वर्ष प्रमाण। याते होय सर्व कल्याण ॥८॥ अथवा एक वर्ष एक सार। कीजे रविव्रत मनहिं विचार ॥ सुन साहुन निज घरको गई। व्रत निन्दासे निन्दित भई ॥८॥ प्रत निन्दासे निर्धन भये। सात पुत्र अयोध्यापुर गये ॥ तहां जिनदत्त सेठ गृह रहे । पूर्व दुःकृतका फल लहें ॥ १० ॥ मात पितां गृह दु:खित सदा । अवधि सहित मुनि पूछे तदा ॥ दयावन्त मुनि ऐसे कहो । व्रत निन्दासे तुम दुःख लहो ॥ ११ ॥ सुन गुरु वचन बहुरि वृत लयो। पुण्य कियो घरमें धन भयो । भविजन सुनो कथा सम्बन्ध । जहाँ रहते थे वे सब नन्द ॥१२॥ एक दिवस गुणधर सुकुमार । घास ले आये गृह द्वार ॥ क्षुधा वन्त भावज पे गयो । दंत बिना नहिं भोजन दयो ।॥ १३ ॥ बहुरि गये जहां भूलों दन्त । देखो तासे अहि लिपटन्त ॥ फणिपतिकी तहां विनती करी। पद्मावति प्रगटी सुदरी ॥१४॥ सुन्दर मणिमय पारसनाथ । प्रतिमा पंचरत्न शुभ हाथ ॥ देकर कहो कुवर कर भोग । करो क्षणक पूजा सयोग ॥१५॥ आनधि निज घरमें धरो। तिहकर तिनको दाखि हरो ॥ सुख बिलास सेबे सप नन्द । निन प्रति पूजों पार्स जिनेन्द्र ॥ १६ ॥ साकेत नगरी अभिराम । जिन प्रसाद राचा शुभ धाम ॥ करी प्रतिष्ठा पुण्य

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