Book Title: Jinvani Sangraha
Author(s): Satish Jain, Kasturchand Chavda
Publisher: Jinvani Pracharak Karyalaya

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Page 200
________________ रविवत पूजा। तिनकी महिमा बस्णी न जाय । दो कुंड सजलकर अति सुहायट जिन मन्दिरकी वेदी विशाल । दरवाजो तीनों बहु सुदाल । ता दरवाजेपर द्वारपाल । ले लकुट खड़े अरु हाथ माल ॥ १० ॥ जे दुर्जनको नहिं जान देय । ते निन्दकको ना दरश देय ॥ चल चन्द्रप्रभूके चौकमाहि । दालाने तहां चौतर्फ आयं ॥ ११ ॥ तहां मध्य सभामंडप निहार । तिसकी रचना नाना प्रकार । तहां चन्द्रप्रभुके दरशपाय । फल जात लहो नरजन्म आय ॥ १२ ॥ प्रतिमा विशाल तहां हाथ सात । कायोत्सर्ग मुद्रा सुहात । बंदे पूजें तहां देय दान । जननत्य भजनकर मधुरगान ॥ १३ ॥ नायेई थेई थेई बाजत सितार । मृदंग वीन मुहचंग सार । तिनकी ध्वनि सुनि भवि होत प्रेम । जयकार करत नाचत सुएम। ते स्तुतिकर फिर नाय शीस। भवि नल मनो कर कर्म खोस । यह सोनागिरि रचना अपार । बरणन करको कवि लहै पार॥१५॥ अति तनक बुद्धि आशासुपाय । बस भक्ति कही इतनी सुगाय । मैं मन्दबुद्धि किम लहों पार । बुद्धिवान चूक लीजो सुधार ॥१६॥ दोहा-सोनागिरि जय मालिका, लघुमति कही बनाय। . पढ़े सुने जो प्रीतिसे, सो नर शिवपुर जाय ॥ १७ ॥ इत्याशीर्वादः । ( ७८ ) रविवतपूजा । भरिल। यह भवजन हितकार, सु रविवृत जिन कही । कर भव्यअन लोग, सुमन देके सही ॥ पूजों पार्श्व जिनेन्द्र त्रियोग लगाय

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